Saturday, 28 October 2017

सतत जन शिक्षा यानी सस्टेनेबल मास एजुकेशन

संछिप्त विवरण

यह एक काल्पनिक, लेकिन संभव, शिक्षा की व्यवस्था है. जो तीसरी दुनिया के देशों या पिछड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों के लिए बहुत ही कारगर और लाभदायक हो सकता है. इस तंत्र में समाज के भिन्न -भिन्न अंगों से भागीदारी की अपेक्षा की जाती है. समाज के विभिन्न अंग जैसे सरकार, व्यवसाय जगत और परिवार यानी गृहक्षेत्र हो सकते हैं. इन्हें ही शिक्षा का फल प्राप्त होता है. इन्हें सजग, शिक्षित, ज्ञानी, सभ्य और कुशल नागरिक, कर्मचारी, और सामाजिक सदस्य मिलते हैं. इसलिए सतत जन शिक्षा की स्थापना और विकास में इनका योगदान आवश्यक है. इस तंत्र में सिर्फ इनसे कुछ पाने की इच्छा के अलावा इन्हें भी उसी अनुपात में लाभ प्रदान करने की व्यवस्था की कल्पना की गई है. यह एक आत्म-स्थाई और आत्म-निर्भर व्यवस्था होगी. जो सभी भागीदारों के लिए लाभदायक होगी.

इस व्यवस्था (जिसे सतत जन शिक्षा कहा जा सकता है) की  स्थापना संचालन और निगरानी में भागीदारों की क्या भूमिका होगी; और उन्हें दीर्घकाल में संभवत क्या फल प्राप्त हो सकते हैं. इसकी चर्चा मैं निम्नलिखित शब्दों में लिपिबद्ध कर रहा हूं.

• सरकार

 किसी देश में केंद्रीय सरकार या प्रादेशिक सरकार या स्थानीय सरकार हो सकते हैं. सरकार प्रजातांत्रिक, राजतांत्रिक या समाजतांत्रिक, इत्यादि हो सकते. सामान्यतः सामाजिक और मिश्रित अर्थव्यवस्था वाली सरकारों के स्वामित्व और नियंत्रण में एक भव्य शिक्षा व्यवस्था और संस्थागत बुनियादी ढांचा होता है. सामान्य रूप से इसमें विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, इत्यादि आते हैं. इन संस्थाओं का व्यवहार केवल सुबह, दोपहर या शाम को विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए किया जाता है. इस प्रकार  प्रत्येक शैक्षणिक इकाई कम से कम 2 बार और व्यवहार किया जा सकता है. निजी क्षेत्र जिनके पास धन, प्रबंधकीय कौशल, और कारगर कार्य-संस्कृति है, उन्हें यह इकाइयां व्यवहार करने के लिए दिया जा सकता है. जिससे निजी क्षेत्र के कुशल प्रबंधन वाला एक शैक्षणिक संस्थान की स्थापना होती है. और विद्यार्थियों को बेहतर शिक्षा प्राप्त होती है. इस प्रकार निजी क्षेत्र के उद्यमियों को बुनियादी ढांचा बनाने के लिए बहुत अधिक लागत (संक कॉस्ट) और इन्हें बनाने में लगने वाले समय की बचत होती है.

उदाहरण के लिए अगर किसी विद्यालय या महाविद्यालय का मासिक लगान ₹20,000 हो तो 1 वर्ष का लगान 240,000 रुपए होंगे. अगर निजी विद्यालयों में प्रत्येक विद्यार्थी का प्रतिवर्ष शुल्क ₹1,000 मान लिया जाए, तो  निजी प्रबंधकों को प्रतिवर्ष 240 विद्यार्थियों को निशुल्क शिक्षा प्रदान करने के लिए कहा जा सकता है. और इस प्रकार उन्हें नगद भुगतान भी नहीं करना पड़ेगा. यह 240 विद्यार्थी गरीबी रेखा से नीचे से शुरु होकर आर्थिक रुप से सक्षम श्रेणी के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध होना चाहिए. इस प्रकार, निजी प्रबंधक भी अल्पकाल में ही ब्रेक-इवन बिंदु (आय  और लागत के समान होने की अवस्था) पर पहुंच जाते हैं; और अल्पकाल में ही लाभ कमाने लगते हैं. इनके लाभ को भी कुछ वर्षों के लिए कर मुक्त किया जा सकता है, क्योंकि सरकार बिना किसी अतिरिक्त खर्च के कई विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा प्रदान कर पा रही है. जिससे सरकार को भी बहुत अधिक बचत हो रही है.

इसी प्रकार अगर किसी विशेष क्षेत्र में सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं की संख्या बहुत कम हो या उनकी स्थापना संभव ना हो, और अगर उसी स्थान पर कोई निजी संस्था पहले से उपस्थित है, तो सरकार इस इकाई को किराए में लेकर एक सार्वजनिक शिक्षण संस्था के रुप में चला सकता है. निजी संस्था को भी कार्यहीन समय के बदले कुछ धन की प्राप्ति होती है क्योंकि उनके संपत्ति का परम सदुपयोग (ऑप्टिमम यूटिलाइजेशन) होने लगता है. सरकार द्वारा भुगतान किए गए लगान को निजी स्वामियों के हाथों में कर मुक्त माना जाना चाहिए. क्योंकि सरकार इस अवस्था में एक शिक्षण संस्था की स्थापना करने में लगने वाले बहुत अधिक लागत और इन्हें बनाने में लगने वाले समय से बच पाते हैं. इस प्रकार इसके अलावा ऐसे विशेष क्षेत्रों में सरकारी उपक्रम के फलस्वरूप कुछ रोजगार के अवसर भी उत्पन्न होते हैं. क्योंकि इस व्यवस्था में भी कुछ शिक्षकों और गैर-शिक्षकों की आवश्यकता होती है.

तीसरी दुनिया और पिछड़ी अर्थव्यवस्था वाले कई देशों में निजी क्षेत्र को सार्वजनिक क्षेत्र से अधिक दक्ष और लाभदायक माना जाता है. कई मामलों में यह सत्य भी है. इस प्रकार इस काल्पनिक शैक्षणिक व्यवस्था में विद्यार्थियों को बेहतर गुणवत्ता वाला शिक्षा प्राप्त हो पाएगा.

कई देशों में पूंजी और प्राकृतिक संपदा के कमी के फलस्वरूप रोजगार के अवसर बहुत कम है. इन देशों में शिक्षित, अनुभवी और कुशल बेरोजगार बहुत अधिक है. सरकार और निजी क्षेत्र के बीच इस प्रकार की साझेदारी की संभावना में कई शिक्षित और कुशल बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा. उनके आय बढ़ने से उनकी क्रय शक्ति बढ़ेगी. जिससे वस्तुओं और सेवाओं का मांग बढ़ेगा. उनके जीवन स्तर में भी वृद्धि होगी. मांग में वृद्धि होने  से व्यवसायिक गतिविधियों का विकास होगा. और इनके फलस्वरूप पूरी अर्थव्यवस्था का विकास होगा. यह एक चक्रीय विकास होगा.

ऐसी संस्थाओं के परिचालन समिति में एक गैर कार्यकारी सदस्य की भी आवश्यकता है जो सरकार और समाज के हितों का रक्षक होगा ऐसी संस्थाओं के क्रिया कलाप में किसी भी प्रकार की बाधा या लोक रुकावट नहीं करेगा उसका दायित्व केवल सरकार को इस में होने वाली गतिविधियों की जानकारी देते जानकारी देना होगा ऐसी कार्य खेल के लिए ऐसी कार्य के लिए गैर राजनीतिक और अवसर प्राप्त शिक्षक उपयुक्त हो सकते हैं जैसे कार्यरत अवसर प्राप्त प्रधान अध्यापक या प्रिंसिपल इत्यादि.

पिछड़ी अर्थव्यवस्थाओं में छात्रवृत्ति, बेरोजगारी भत्ता, इत्यादि आम बात है. इन्हें भी उत्पादक बनाने की आवश्यकता है. सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता का प्रमुख शर्त बेरोजगार या गरीब होना है. जो कि शायद सही नहीं है. कई देशों में कई शिक्षित और कुशल बेरोजगार है. अगर उपरोक्त व्यवस्था की स्थापना होती है, तो कई शिक्षण कर्मियों की आवश्यकता होगी. इन बेरोजगारों को इन संस्था में अपनी सेवा प्रदान करने के बदले छात्रवृत्ति या बेरोजगारी भत्ता के बदले वेतन मिलेगा. जिससे उनका आत्म सम्मान और आगे बढ़ने की इच्छा में वृद्धि होगी. कई प्रकार के पढ़ाई, जैसे बेचलर ऑफ एजुकेशन (B. Ed.) कोर्स इत्यादि में विद्यार्थियों को किसी अन्य विद्यालय में जाकर कई दिनों तक पढ़ाने का अभ्यास करना पड़ता है. और इन विद्यालयों के असली शिक्षक इतने दिनों तक कार्यहीन रहते हैं. क्या यह व्यवस्था सही है? कुछ लोग सिर्फ कार्यहीन समय बिताने के लिए वेतन पाते हैं. इस व्यवस्था को बदल कर इस प्रकार के विद्यार्थियों को किसी क्षेत्र विशेष में जाकर किसी सरकारी या निजी विद्यालय या अन्य किसी भी भवन में वहां के अशिक्षित बच्चों और बड़ों को मूलभूत शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए. इससे समाज में निरक्षरता घटेगी; इन विद्यार्थियों के अनुभव में वृद्धि होगी; और कोई भी कर्मचारी को अपना समय बैठकर नहीं बिताना होगा जिससे सामाजिक धन का सदुपयोग होगा.


• व्यवसाय जगत

व्यवसाय जगत का अर्थ निजी क्षेत्र के व्यवसायिक उपक्रमों से है.

कई देशों में व्यवसाय जगत से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने लाभ का एक हिस्सा अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के पालन के लिए खर्च करेंगे. इस धन का उपयोग वे विद्यालय पार्क, खेल के मैदान, पुस्तकालय, इत्यादि की स्थापना और परिचालन में करते हैं. इनका उपयोग वे ग्राहक शिक्षा और ग्राहक सुरक्षा के लिए भी करते हैं. व्यवसाय जगत को इसी धन का अनुदान शिक्षा जगत को करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है.

इसके अलावा व्यवसायिक उपक्रम मशहूर शैक्षणिक संस्थाओं के साथ साझेदारी कर सकते हैं. इस व्यवस्था में विद्यार्थियों को सप्ताह के दो या तीन दिन कॉलेज या विश्वविद्यालय में कक्षा में उपस्थित रहना पड़ेगा और पढ़ाई करनी पड़ेगी; और सप्ताह के बाकी दिनों में उस व्यवसायिक प्रतिष्ठान में जाकर कार्य करना पड़ेगा. इसे सामान्य बोलचाल की भाषा में कारपोरेट ट्रेनिंग  प्रोग्राम भी कहा जाता है. इस प्रकार विद्यार्थी अनुभव कौशल और शिक्षा एक ही समय में प्राप्त कर पाते हैं. इस कार्यक्रम के पूरा होने पर विद्यार्थी या तो उसी उपक्रम या अपनी इच्छा अनुसार किसी भी उपक्रम को चुन सकते हैं.  किसी भी हाल में व्यवसाय जगत को शिक्षित अनुभवी और कुशल लेबर सप्लाई में वृद्धि मिलती है. इस प्रकार उन्हें आसानी से शिक्षित, अनुभवी और कुशल कर्मचारी मिलते हैं. लेबर सप्लाई में वृद्धि होने के फलस्वरूप श्रम लागत में कमी आती है; और इस प्रकार उनके लाभ में वृद्धि होती है. इस प्रकार बेरोजगारी की समस्या भी घटती है.

निजी व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के प्रतिभावान और उत्साही कर्मचारी विद्यालय, कॉलेज और विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ व्यवसाय जगत में अपने कार्यकाल के अनुभव और कई प्रकार की जानकारियों को साझा कर सकते हैं. वे जब भी खाली समय निकालकर ऐसे प्रशिक्षण दे सकते हैं. इस प्रकार इन विद्यार्थियों को भी सही समय पर व्यवसाय जगत के बारे में कई प्रकार की बहुमूल्य जानकारियां मिलेंगी. जिनका उपयोग वे अपने विद्यार्थी जीवन में भी कर पाएंगे. विद्यार्थी जीवन पूरा होने पर विद्यार्थी इन्हीं प्रतिष्ठानों को चुन सकते हैं. इस प्रकाश प्रशिक्षण देने वाले ऐसे प्रतिभावान और उत्साही कर्मचारियों के प्रतिष्ठानों के सुनाम में वृद्धि होती है; और उनका ब्रैंड वैल्यू भी बढ़ता है. अगर सरकार को यह उचित लगे, तो ऐसे कर्मचारियों को उनकी सेवाओं के बदले एक उचित पैमाने का कर छूट दिया जा सकता है. जो एक व्यक्तिगत प्रोत्साहन के रूप में भी कार्य करेगा.

इसी प्रकार अवसर प्राप्त शिक्षकों को उनकी सुविधानुसार कभी भी कही भी कुछ कक्षा में पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. इस प्रकार शिक्षा क्षेत्र में ज्ञानी और अनुभवी शिक्षाकर्मियों की कमी की समस्या से लड़ा जा सकता है. उनकी सेवाओं के बदले एक न्यायोचित कर छूट प्रदान करने पर वे थोड़ा बचत कर पाएंगे; और उनके ज्ञान और अनुभव का लाभ इस समाज को मिलता रहेगा.

• परिवार

यह समाज की वह इकाई है जो ना ही सरकार और ना ही व्यवसाय जगत के प्रत्यक्ष सदस्य है. यह समाज की एक पारस्परिक निर्भरशील इकाई है, जिसमें वस्तुओं और सेवाओं के उपभोक्ता और देश के नागरिक शामिल है.

एक चीनी कहावत है कि अगर आप किसी को एक दिन खिलाना चाहते हैं तो उसे एक मछली दान में दें और अगर आप उसे हमेशा खिलाना चाहते हैं तो उसे मछली पकड़ना सिखाएं.

समाज के कई व्यक्ति, गोष्ठी, संस्था, दल इत्यादि कई प्रकार  के पर्व पर अत्यधिक धन खर्च करते हैं. उत्सव मनाना और पर्वो पर हर्षोल्लास बनाना गलत नहीं कहा जा सकता. लेकिन धन के सदुपयोग और दुरुपयोग में अंतर होता है. विश्व के शायद सभी धर्मों का मूल संदेश यही है, कि सबसे बड़ा धर्म मानव सेवा है. परोपकार ही सबसे बड़ा धर्म है. इसलिए मैं सिर्फ आशा करता हूं कि ऐसे व्यक्ति, संस्था या गोष्ठी अपने खर्चों का अगर 90% या उससे भी अधिक दान शैक्षणिक व्यवस्था की स्थापना, संचालन और रख-रखाव के लिए करें, तो यह मानव जाति के प्रति बहुत बड़ी सेवा होगी. इस प्रकार उनके हृदय और आत्मा को जो खुशी मिलेगी वह किसी भी अन्य हर्षोल्लास या उत्सव में शायद नहीं मिल सकती.

 ऐसा कह कर मैं किसी भी प्रकार से किसी के विश्वास की भावना को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता हूं.

 बाकी 10% धनराशि का उपयोग हर्षोल्लास और उत्सव मनाने में खर्च कर सकते हैं. और गर्व के साथ पूरे समाज को बता सकते हैं कि उन्होंने कितना धन शिक्षा के विकास के लिए दान किया है. उनके द्वारा दान किए गए इस धन का उपयोग विद्यालय, कॉलेज, विश्वविद्यालय, पुस्तकालय, खेल के मैदान, हॉस्टल इत्यादि के निर्माण, संचालन और रख-रखाव में किए जा सकते हैं. इस प्रकार समाज में निरक्षरता घटेगी और समाज के सदस्य एक शिक्षित और बेहतर नागरिक बन पाएंगे. जिससे समाज का सांस्कृतिक और बौद्धिक विकास होगा. और प्रत्येक समाज के सदस्य को एक सुखद अनुभूति होगी. निरक्षरता के दूर होने से समाज की कई कुरीतियां, बुराइयां, गैर का कानूनी गतिविधियों, बेरोजगारी की समस्या, इत्यादि में अवश्य कमी आएगी. जो समाज के लिए एक अनमोल रिटर्न गिफ्ट होगा अपने अनुदान के बदले.



अगर ऊपर सुझाए गए सभी कदमों को निष्ठा के साथ उठाया जाए, तो यह व्यवस्था दीर्घ काल में भी स्थाई रहेगी. क्योंकि इस व्यवस्था में सिर्फ लेने पर ही नहीं, देने पर भी ध्यान दिया गया है. यह ऐसी व्यवस्था है जिस में जो जितना योगदान करता है उसे उतना ही पुरस्कार मिलता है. इस प्रकार यह व्यवस्था गरीब देशों में साधारण जनता को शिक्षित करने के लिए अवश्य कारगर साबित हो सकती है.


(अगर किसी भी प्रकार किसी भी व्यक्ति को मेरी किसी भी बात से ठेस पहुंची हो, तो मैं हाथ जोड़कर उनसे निवेदन करता हूं, कि वे मुझे नासमझ मानकर क्षमा कर दें. क्योंकि क्षमा करना दैवीय गुण है.)

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