Sunday, 29 October 2017

WBHS XII Tax: गृह संपत्ति से आय (Income from House Property)


गृह संपत्ति से आय  (इनकम फ्रॉम हाउस प्रॉपर्टी)


¶ करारोपण का आधार (basis of charge)

  धारा 22 के अनुसार  गृह संपत्ति पर करारोपण का आधार किराया आय नहीं बल्कि संपत्ति का वार्षिक मूल्य यानी एनुअल वैल्यू है।

• आवश्यक शर्तें
गृह संपत्ति से आय पर करारोपण के लिए निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है।

क.  गृह संपत्ति में इमारत (बिल्डिंग) और उससे संग्लन  जमीन होना आवश्यक है.

ख. करदाता यानी assessee इस संपत्ति का मालिक होना चाहिए.

ग. गृह संपत्ति का उपयोग स्वामी द्वारा व्यवसाय या पेशा (जिनके आय पर कर दिया जाता हो) चलाने के लिए नहीं होना चाहिए।

¶ इमारत और संलग्न जमीन वाली संपत्ति 

गृह संपत्ति के आय पर करारोपण के लिए इमारत का होना आवश्यक है। इमारत विहीन किसी जमीन से प्राप्त आय को इस शीर्षक (head) के अंदर करारोपित नहीं  किया जा सकता।

● इमारत का अर्थ
साधारण अर्थ में इमारत का अर्थ आवासीय इमारत, भंडारगृह, सभागार, सिनेमाघर, कार्यालय, संगीत घर, भाषण घर, इत्यादि हो सकता है।

 उच्चतम न्यायालय के अनुसार किसी ढांचा (structure) का इमारत होने के लिए उस पर छत होना अनिवार्य नहीं है। लेकिन सामयिक (temporary) उद्देश्य के लिए किसी ढांचा पर अगर किसी प्रकार का छत भी हो, तो भी उसे इमारत नहीं माना जाएगा; जैसे मेला इत्यादि के लिए बनाए गए ढांचे।
 इमारत से संलग्न भूमि का अर्थ किसी भी प्रकार के खाली जमीन से है जो कि उस इमारत का अभिन्न अंग है। यह इमारत तक पहुंचने का रास्ता, सामने का खाली स्थान, खेलने के लिए खाली जमीन, बगीचा, रसोईघर, गाड़ी रखने का स्थान, इत्यादि हो सकता है।

¶ मानद स्वामी (deemed owner)
 कानून की धारा 27 के अंतर्गत  कोई करदाता अगर किसी गृह संपत्ति का वास्तविक स्वामी ना भी हो, तो निम्नलिखित मामलों में उसे उस गृह संपत्ति का स्वामी माना जाएगा और ऐसे गृह संपत्ति  से आय पर कर का भुगतान करने के लिए वह  जिम्मेदार होगा...
 क. अगर कोई व्यक्ति पर्याप्त प्रतिफल (adequate consideration) के अभाव में अपने पति या पत्नी या  संतान को गृह संपत्ति हस्तांतरित करें. अगर यह हस्तांतरण विवाह-विच्छेद (legal separation, i.e. divorce) के कारण या विवाहित बेटी के साथ हो, तो इन्हें अपवाद माना जाएगा।

ख.  किसी अविभाज्य जायदाद (impartible estate) के धारक को इस प्रकार हस्तांतरित की गई गृह संपत्ति का मानद स्वामी माना जाएगा .

 ग. किसी सहकारी समिति (cooperative society), कंपनी या व्यक्तियों के गुट (association of person) के सदस्य (member) जिसे कोई इमारत या उसका कोई भाग आवंटित या पट्टे (lease) पर किसी गृहनिर्माण योजना (स्कीम) के अंतर्गत प्राप्त हुआ है. उन्हें भी ऐसे संपत्ति का मानक स्वामी माना जाता है ।

घ. ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट 1882  के धारा 53ए में उल्लेखित किसी अनुबंध को पूरा करने के कारण किसी व्यक्ति को अगर किसी इमारत या उसके किसी हिस्से पर स्वामित्व रखने की अनुमति मिले तो उसे भी इस संपत्ति का मानद स्वामी माना जाएगा.

च. अगर कोई व्यक्ति दीर्घकालीन पट्टे (long term lease) के जरिए किसी संपत्ति पर अधिकार हासिल करता है, तो उसे भी  मानद स्वामी माना जायेगा। धारा 269UA(f) के अनुसार जो पट्टा 12 वर्षों से कम का नहीं होता उसे दीर्घकालीन पट्टा माना जाता है।

¶ वार्षिक मूल्य (एनुअल वैल्यू)

  किसी गृह संपत्ति के लाभ उत्पन्न करने की अंतर्निहित क्षमता को वार्षिक मूल्य कहा जा सकता है.  जिस धनराशि पर किसी गृह संपत्ति को वर्ष दर वर्ष तर्कसंगत रूप से किराए पर दिए जाने की आशा की जा सकती है उसे वार्षिक मूल्य माना जा सकता है।

• प्राप्त या प्राप्ति-योग्य  किराया (rent received or receivable)

  जब किसी घर को किराए पर दिया जाता है तो इसके फलस्वरूप आय के रूप में किराया प्राप्त होता है यह किराया उस घर के आय करने की क्षमता का परिचायक हो सकता है। केवल घर के उपयोग के लिए प्राप्त किराया तदर्थ (ad hoc) किराया कहलाता है। कभी-कभी अन्य सेवाओं, जैसे दरवान, पानी, बिजली, इत्यादि के लिए भी किराए के साथ कुछ अतिरिक्त धन प्राप्त होता है जिन्हें मूल किराए से अलग कर देना चाहिए.
  प्राप्त या प्राप्त योग्य किराया किसी घर के आय करने की क्षमता का अंतिम साक्ष्य ना होकर प्रथम दृष्टया साक्ष्य है.

• नगरपालिका मूल्य ( मुनिसिपल वैल्यू)
किसी गृहस्वामी पर करारोपण के लिए नगरपालिका अधिकारी उसकी संपत्ति का किराया योग्य मूल्य (lettable value) या नगरपालिका मूल्य (municipal value) जानने के लिए एक निष्पक्ष मूल्यांकन करते हैं. इस मूल्यांकन के आधार पर किराया योग्य मूल्य या नगरपालिका मूल्य पर एक निश्चित प्रतिशत कि दर  से नगरपालिका कर (municipal tax) रोपित (charge) किया जाता है. दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई जैसे महानगरों में नगर पालिका अधिकारी टैक्स निर्धारण के लिए किसी गृह संपत्ति के नगरपालिका मूल्य से मरम्मत और रखरखाव के लिए 10% की छूट देते हैं. आयकर की गणना के लिए ऐसे छूट को पुनः जोड़ दिया जाता है जिससे कुल नगरपालिका मूल्य पता चलता है.

• उचित/न्यायसंगत किराया (फेयर रेंट)
एक ही प्रकार के क्षेत्र में एक ही प्रकार के गृह संपत्ति से जितना किराया अर्जित किया जा सकता है उसे उचित किराया यानी फेयर रेंट कहते हैं. किसी गृह संपत्ति के आय की क्षमता  के निर्धारण के लिए आयकर अधिकारी किसी अन्य गृहस्वामी द्वारा किए गए लेनदेन की भी समीक्षा कर सकते हैं.

• मानक किराया (स्टैंडर्ड रेंट)
 अगर कोई गृह संपत्ति रेंट कंट्रोल एक्ट के अंतर्गत आता हो, तो उसका तर्कसंगत किराया (रीजनेबल रेंट) इस अधिनियम के अनुसार निर्धारित मानक किराया से अधिक नहीं हो सकता. इस प्रकार मानक किराया वार्षिक मूल्य के निर्धारण के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है.

¶ एनुअल वैल्यू की गणना (जब कोई unrealised रेंट ना हो)
1. रीजनएबल एक्सपेक्टेड रेंट की गणना
 ग्रॉस मुनिसिपल वैल्यू और फेयर रेंट में जो धनराशि अधिक हो. लेकिन इस प्रकार प्राप्त धनराशि स्टैंडर्ड से अधिक नहीं हो सकती है.

2. प्राप्त या प्राप्त योग्य किराया  की गणना [धारा 23(1)(b)]

ऊपर के दोनों विकल्पों में जो अधिक होगा वह ग्रॉस एनुअल वैल्यू कहलायेगा.

3. ग्रोस एनुअल वैल्यू से गृहस्वामी द्वारा भुगतान किए गए  म्यूनिसिपल टैक्स इत्यादि घटाने पर नेट एनुअल वैल्यू पता चलता है.

¶ When unrealized rent is allowed to be deducted from rent received or receivable

जब किराएदार किराया बाकी होने पर भी किराया नहीं चुकाता है तो ऐसे किराया को unrealised rent कहते हैं.

निम्नलिखित शर्तों के पूरा होने पर ही unrealised rent को  प्राप्त या प्राप्ति योग किराया से घटाया जा सकता है...

1. किराया अनुबंध bona fide था.
2. किराएदार ने घर खाली कर दिया है या किराएदार से घर खाली करवाने  के लिए आवश्यक सभी कदम उठाए जा चुके हैं.
3. किराएदार गृह स्वामी के किसी अन्य गृह संपत्ति में नहीं रहता हो.
4. बकाया किराया प्राप्त करने के लिए सभी कानूनी कदम उठाए जा चुके हैं या गृहस्वामी कर अधिकारियों को यह समझाने में सक्षम हो जाए कि ऐसी कानूनी कार्यवाहियां बेकार सिद्ध होंगी.

¶ जब किराए पर दिया गया गृह संपत्ति पिछले वर्ष खाली (vacant) रहे.

सुनहरा नियम

निम्नलिखित विधि से वार्षिक मूल्य या एनुअल वैल्यू ज्ञात किया जा सकता है...

1. रीजनेबल एक्सपेक्टेड किराया ज्ञात करें
म्युनिसिपल वैल्यू और फेयर रेंट में जो अधिक हो लेकिन यह धनराशि स्टैंडर्ड रैंट से अधिक नहीं होनी चाहिए.

2. वार्षिक किराया यानी एनुअल रेंट ज्ञात करें अर्थात अगर गृह संपत्ति पूरे साल के लिए किराए पर दी गई हो और इसमें से अगर कोई बकाया किराया हो तो उसे घटा दिया जाए.

3. ऊपर के दोनों विकल्पों में जो अधिक हो उसे चुन लें.

4. तीसरे विकल्प में प्राप्त धनराशि से घर के खाली रहने की अवधि (वैकेंसी पीरियड) का किराया घटा दे.

चौथे विकल्प में प्राप्त धनराशि ही प्रॉपर्टी का ग्रास एनुअल वैल्यू होगा.

¶ ऐसा गृह संपत्ति जो स्वामी के अधिपत्य में हो लेकिन वर्ष के किसी अंश में किराए पर दिया गया हो की एनुअल वैल्यू का निर्धारण [computation of annual value of house property which is self-occupied but let out for part of the year u/s 23(3)]:

  जब गृहस्वामी के अधिपत्य वाला घर वर्ष के किसी अंश में किराए पर दिया जाता है, तो ऐसे गृह संपत्ति के एनुअल वैल्यू का निर्धारण धारा 23 (1) के अनुसार ही किया जाता है. और यह मान लिया जाता है कि यह संपत्ति पूरे वर्ष के लिए किराए पर दिया गया था. रिजनेबल एक्सपेक्टेड रेंट की गणना सामान्य रूप से होगी, लेकिन प्राप्त किराया केवल किराए पर दिए गए अवधि की ही ली जाएगी.

¶ ऐसे गृह संपत्ति के एनुअल वैल्यू का निर्धारण जो गृहस्वामी के आधिपत्य में था लेकिन पिछले वर्ष पूर्ण या आंशिक रूप से खाली था [computation of annual value of a self occupied residential house which remains vacant during the whole or any part of the previous year u/s 23(2)(b)]

 जब किसी घर में गृहस्वामी स्वयं रहता हो और अपने कार्य के कारण पिछले वर्ष या वर्ष के कुछ हिस्से में उस में ना रह सके और अपने नौकरी, व्यवसाय या पेशा के लिए उसे किसी अन्य जगह पर रहना पड़े जिसका वह स्वयं मालिक ना हो, तो ऐसे गृह संपत्ति का एनुअल वैल्यू शून्य माना जाता है. लेकिन  गृहस्वामी को निम्नलिखित शर्तों को पूरा करना आवश्यक है...

1. किसी अन्य स्थान पर नौकरी, व्यवसाय या पेशा के कारण  स्वामी इस घर में ना रह पाया हो.
2. घर या घर का कोई हिस्सा खाली रहा हो.

3. इस घर से किसी भी अन्य प्रकार का लाभ नहीं प्राप्त किया गया हो.

¶ जब गृहस्वामी एक से अधिक घरों में रहता हो यानी एक से अधिक घर को किराए पर नहीं दिया गया हो [computation of annual value in case of more than one self-occupied residential house u/s 23 (4)]

धारा 23(4) के अनुसार अगर कोई मालिक एक से अधिक घरों में रहता हो या रहने के लिए उपयोग करता हो, तो दोनों मैं किसी एक घर का एनुअल वैल्यू शून्य माना जाएगा. और दूसरे घर को किराए पर दिया गया माना जाएगा. अर्थात दूसरे घर के एनुअल  वैल्यू धारा 23(1)(a) के अनुसार निर्धारित किया जाएगा. जिसका अर्थ यह है कि इसका एनुअल वैल्यू म्यूनिसिपल वैल्यू या  फेयर  रेंट में जो अधिक होगा. लेकिन यह धनराशि स्टैंडर्ड रेंट  से अधिक नहीं हो सकता.

निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य हैं...

• मालिक के पास यह अधिकार होता है कि वह दोनों घरों में से किसी एक घर का एनुअल वैल्यू 0 मान सकता है. इसलिए  जिस घर का एनुअल वैल्यू अधिक हो उसे वह अपने अधिकार में घोषित कर सकता है.

• चुनने का अधिकार प्रतिवर्ष बदला जा सकता है.

• अगर किसी घर में कई रहने लायक इकाइयों हो, और उनमें मालिक रहता हो, तो इन सभी इकाइयों का समुचित एनुअल वैल्यू  शून्य माना जाएगा.

¶  एनुअल वैल्यू से कटौती (deduction from annual value u/s 24)

   किसी गृह संपत्ति के एनुअल वैल्यू से कुछ खर्च और इसे बनाने या खरीदने के लिए लिए गए ऋण के मूल धन और ब्याज के  भुगतान को  घटाया जा सकता है ऐसी कटौतियां को निम्नलिखित रोष दो श्रेणियों में बांट कर समझा जा सकता है।

I.  किराए पर दिए गए घर के  वार्षिक मूल्य से कटौती

१. स्टैंडर्ड डिडक्शन [धारा 24(a)]
 एनुअल वैल्यू के 30%  की कटौती मिलती है. यह कटौती वास्तविक खर्च पर निर्भर नहीं करती.

२.  ऋण ब्याज [धारा 24(b)]
 अगर ऋण के पैसे से गृह संपत्ति को खरीदा, बनाया, मरम्मत करवाया या पुनर्निर्माण कराया गया हो, तो ब्याज के रुप में किए गए भुगतान की पूर्ण धनराशि को वार्षिक मूल्य यानी एनुअल  वैल्यू से घटाया जा सकता है.

II. जिस घर में मालिक स्वयं रहता  हो उसके वार्षिक मूल्य यानी एनुअल वैल्यू में से कटौती. 

ऋण का ब्याज (interest on loan)

•अगर ऋण घर को खरीदने, बनाने, मरम्मत कराने, या पुनर्निर्माण कराने, इत्यादि के लिए 1. 4. 1999 से पहले लिया गया है, तो अधिकतम ₹30,000 तक की धनराशि की कटौती की जा सकती है.

• अगर loan घर के घर की मरम्मत, पुनर्निर्माण, इत्यादि के लिए 1.4.1999 के बाद लिया गया है, तो अधिकतम Rs.30,000 तक की धनराशि की कटौती की जा सकती है.

• और अगर loan घर खरीदने या बनवाने के लिए ली जाती है, तो अधिकतम Rs.200,000 की धनराशि को घटाया जा सकता है.

¶ बकाया किराया (एरियर रेंट) धारा 25बी 

अगर किसी करदाता को गत वर्ष उससे पहले का कोई भी बकाया किराया प्राप्त हो तो 30% स्टैंडर्ड डिडक्शन के बाद शेष राशि को पिछले वर्ष में 'गृह संपत्ति से आय' शीर्षक के अंदर आय माना जाएगा. इस वर्ष करदाता का गृहस्वामी होना आवश्यक नहीं है.

WBHS XII Tax: पूंजीगत लाभ (Capital Gains)

पूंजीगत लाभ यानी कैपिटल गेंस (धाराएं 45 से 55) 


¶ करारोपण का आधार (बेसिस ऑफ चार्ज) 

निम्नलिखित शर्तों के पूरा होने पर पूंजीगत लाभ पर कर लगाया (करारोपण किया) जा सकता है... 

1. एक पूंजीगत संपत्ति यानी कैपिटल  एसेट  होना चाहिए. 
2. ऐसे संपत्ति को गत वर्ष में हस्तांतरित किया गया हो.
3. इस हस्तांतरण के फलस्वरूप लाभ या मुनाफा हुआ हो. लाभ का अर्थ  ऋणात्मक लाभ यानी घाटा भी हो सकता है.
4. ऐसा पूंजीगत लाभ धाराएं 54 इत्यादि  के अंतर्गत कर मुक्त (exempt) ना हो. 

¶ पूंजीगत संपत्ति  यानी कैपिटल एसेट्स  का अर्थ [धारा 2(14)] 

करदाता के अधिपत्य में किसी भी प्रकार की संपत्ति को कैपिटल  एसेट्स यानी पूंजीगत संपत्ति कह सकते है.  यह करदाता के व्यवसाय या पेशा से जुड़ा या जुड़ा नहीं भी हो सकता है. संपत्ति शब्द का व्यापक अर्थ हो सकता है. इसमें किसी भारतीय कंपनी में किसी प्रकार का अधिकार जिसमें परिचालन (management) या नियंत्रण (control) के अधिकार भी  सम्मिलित हो सकता है. 

¶ गैर पूंजीगत संपत्तियों का उदाहरण (एग्जांपल ऑफ एसेट्स नॉट ट्रीटेड एस  कैपिटल एसेट) 

निम्नलिखित संपत्तियों को पूंजीगत संपत्ति यानी कैपिटल एसेट नहीं माना जाता है... 

• स्टॉक इन ट्रेड 
किसी व्यवसाय में सामान्य रूप से उपयोग होने वाले  कच्चा सामग्री consumable स्टोर्स. 
लेकिन इमारत, यंत्र, सुनाम, इत्यादि को छोड़कर. 

• व्यक्तिगत सामान (personal effects) 
अर्थात चल संपत्ति जिसमें पोशाक, कपड़े, फर्नीचर इत्यादि भी शामिल हैं जिन्हें करदाता या करदाता के परिवार के निर्भर शील सदस्यों द्वारा व्यवहार किया जाता है. जैसे घरेलू बर्तन, वस्त्र और पोशाक, घरेलू फर्नीचर इत्यादि. 

लेकिन निम्नलिखित व्यक्तिगत सामानों को भी पूंजीगत संपत्ति माना जाता है 
आभूषण, पुरातत्व कलेक्शंस, चित्र, पेंटिंग, स्कल्पचर यानी मूर्ति, कोई भी अन्य कलाकृति. 

• भारत में उपस्थित कृषि भूमि 

• 6.5% गोल्ड बॉन्ड 1977 , 7% गोल्ड बांड्स 1980,  नेशनल डिफेंस गोल्ड बॉन्ड  1980 

• स्पेशल बीयरर बॉन्ड 1991 

• गोल्ड डिपॉजिट बॉन्ड्स अंडर द गोल्ड डिपॉजिट स्कीम 1999


¶ पूंजीगत संपत्तियों का वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन ऑफ कैपिटल एसेट्स) 

 पूजीगत संपत्तियां निन्नलिखित दो प्रकार की होती है... 
•अल्पावधि पूंजीगत संपत्ति (शार्ट टर्म कैपिटल एसेट) 
•दीर्घावधि पूंजीगत संपत्ति  (लॉन्ग टर्म कैपिटल एसेट) 

¶ अल्पावधि पूंजीगत संपत्ति [शार्ट टर्म कैपिटल एसेट धारा 2(42A)] 

जो पूंजीगत संपत्ति कर दाता के अधिपत्य में 36 महीनों की अवधि से अधिक न रहे उसे अल्पावधि पूंजीगत संपत्ति कहते हैं. 

लेकिन निम्नलिखित मामलों में यह अवधि 36 महीनों के बदले केवल 12 महीनों की होगी... 
•किसी भारतीय कंपनी में हिस्सेदारी  (शेयर) या कोई भी प्रत्याभूति जो भारतीय स्कंध बाजार में सूचीबद्ध हो 
•यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया की कोई इकाई 
•धारा 10(23D) में निर्धारित म्युचुअल फंड की इकाई 
•जीरो कूपन बांड, इत्यादि. 

¶ दीर्घावधि पूंजीगत संपत्ति [लॉन्ग टर्म कैपिटल एसेट धारा 2(29A)] 

अल्पकालीन पूंजीगत संपत्तियों को छोड़कर बाकी सभी पूंजीगत संपत्तियां दीर्घावधि पूंजीगत संपत्ति यानी लॉन्ग टर्म कैपिटल एसेट हैं. 

¶ पूंजीगत संपत्ति के हस्तांतरण का अर्थ [मीनिंग ऑफ ट्रांसफर ऑफ कैपिटल एसेट्स धारा 2(47)] 

निम्नलिखित घटनाओं को पूंजीगत संपत्तियों का हस्तांतरण माना जाएगा... 

• पूंजीगत संपत्ति का विक्रय, विनिमय या त्याग 
•किसी पूंजीगत संपत्ति में अधिकार की समाप्ति 
•किसी कानून के अंतर्गत पूजीगत संपत्ति का अनिवार्य अधिग्रहण 
•जब करदाता द्वारा किसी संपत्ति को अपने व्यवसाय या पेशा के लिए स्टॉक-इन-ट्रेड में परिवर्तित किया जाता है 
•ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट 1882 में वर्णित धारा 53 ए के अनुसार किसी अनुबंध के पूरा होने के फलस्वरूप किसी अचल संपत्ति के अधिपत्य की मान्यता देना. 
•जीरो कूपन बांड की परिपक्वता (maturity) या विमोचन (redemption)
•ऐसा कोई भी लेनदेन जिसके परिणाम स्वरूप किसी पूंजीगत संपत्ति का हस्तांतरण हो या किसी अचल संपत्ति के भोग का अधिकार किसी को मिले, तो ऐसे लेनदेन को भी हस्तांतरण माना जाएगा. 
•धारा 45(1A) के अतिरिक्त किसी बीमा कंपनी से क्षतिपूर्ति के रूप में अगर धनराशि प्राप्त हो, तो इस अवस्था में क्षतिग्रस्त बीमित संपत्ति को भी हस्तांतरित माना जाएगा. 

¶ निम्नलिखित प्रकार के लेनदेनों को भी पूंजीगत संपत्तियों का हस्तांतरण माना जाता है... 

• सलामी  या प्रीमियम के बदले किसी खान का पट्टा या जमीन का हस्तांतरण 
• किसी कंपनी के शेयरधारकों को भुगतान के फलस्वरूप शेयर कैपिटल में कमी 
•किसी फर्म द्वारा प्रोपराइटरी व्यवसाय का अधिग्रहण 
•किसी व्यक्ति द्वारा फर्म को पूंजीगत संपत्ति का हस्तांतरण 
•फर्म डीजॉल्यूशन  के समय पूंजीगत संपत्ति का बंटवारा 
•धारा 10(23D) में  निर्देशित  म्युचुअल फंड या यूटीआई [धारा 45(6)] की इकाइयों का पुनः क्रय (repurchase) करना. 

WBHS XII Tax: अन्य स्रोतों से आय (Income from Other Sources)


अन्य स्रोतों से आय (इनकम फ्रॉम अदर सोर्सेज धाराएं 56-59) 


¶ करारोपण का आधार (बेसिस ऑफ चार्ज) 

धारा 14 के अनुसार किसी करदाता के आय को पांच शीर्षकों में वर्गीकृत किया जा सकता है. यह शिर्षक निम्नलिखित हैं... वेतन से आय, गृह संपत्ति से आय, व्यवसाय या पेशे से लाभ या मुनाफा, पूंजीगत संपत्ति से लाभ, और अन्य स्रोतों से आय. 
धारा 10-13ए के अनुसार कई प्रकार के आय करमुक्त (exempt)  हैं. 

इस प्रकार अन्य स्रोतों से आय पर कर लगाने (करारोपण करने) के लिए निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है... 

1. एक आय होना चाहिए. 
2. यह आय  कर मुक्त नहीं होना चाहिए. 
3. यह आय  प्रथम 4 शीर्षकों के अंदर कर योग्य (taxable) ना हो. 

¶ इस शीर्षक के अंतर्गत करयोग्य आय के कुछ उदाहरण... 

• गैर घरेलू कंपनी से लाभांश.
• लॉटरी, क्रॉसवर्ड पहेली, दौड़, घुड़दौड़, ताश या अन्य खेल या किसी भी प्रकार का जुआ या सट्टा से अर्जित पुरस्कार की धनराशि.
• अगर किसी करदाता को अपने कर्मचारियों से प्रोविडेंट फंड, superannuation फंड या राज्य कर्मचारी बीमा अधिनियम 1948 के अनुसार गठित किसी भी कोष (fund) या कर्मचारियों के कल्याण के लिए गठित कोई भी कोष में अनुदान (contribution) प्राप्त हो.
• प्रतीभूतियों (securities) से प्राप्त ब्याज.
• किराए पर दिए गए यंत्र, संयंत्र (plant) या फर्नीचर के कारण प्राप्त किराया.
• अगर कोई कर दाता यंत्र, संयंत्र या फर्नीचर किराए पर देता है और उसके साथ ही उसे एक ऐसा इमारत भी किराए पर देना पड़ता है जिसे इन यंत्र इत्यादि से अलग नहीं किया जा सकता तो इस अवस्था में प्राप्त किराया भी इसी शीर्षक में कर आरोपित होगा.
• की मैन इंश्योरेंस पॉलिसी और इस पर आवंटित बोनस के अंतर्गत प्राप्त धनराशि

¶ अतिरिक्त उदाहरण 

सबलेटिंग यानी पुनः किराया देने से आय,
आकस्मिक आय (अचानक होने वाला आय)
 बैंक या कंपनियों में जमा धनराशि या दिए गए ऋण से ब्याज,
 बीमा कमीशन,
 निदेशक शुल्क (director's fee),
 परिवार पेंशन,
 भूमि किराया,
 भारत से बाहर अवस्थित भूमि से प्राप्त कृषि आय,
खाली जमीन से प्राप्त आय,
 छिपाए (undisclosed) गए स्रोतों से आय,
 सांसदों की पारिश्रमिक (remuneration),
खाता-परीक्षकों की पारिश्रमिक_अगर अपने नियोक्ता (employer) से प्राप्त ना हुआ हो तो,
 विदेशी सरकारों की प्रतिभूतियों से प्राप्त ब्याज,
 रॉयल्टी से आय,
मत्स्य पालन से आय,
 unrecognised प्रोविडेंट फंड  मेे  कर्मचारी के सहयोग पर ब्याज,
 गैर कर्मचारी निदेशक द्वारा प्राप्त ग्रेजुएटी,
 दौड़ वाली संस्थाओं से प्राप्त आय,
 पशु चराने के अधिकार देने पर आय,
 नई कंपनी के निदेशक को बैंक के प्रास गारंटर बनने या शेयरों  का अंडरराइटिंग करने के कारण प्राप्त कमीशन,
व्यवसाय बंद करने के पश्चात प्राप्त आय,
गैर नियोक्ता द्वारा वसीयत या अनुबंध या ट्रस्ट डीड के अंतर्गत भुगतान योग्य annuity,
 ट्रेडमार्क धारक को देय annuity, इत्यादि.

¶ लॉटरी, क्रॉसवर्ड पहेली, ताश खेल, घुड़दौड़, इत्यादि से प्राप्त पुरस्कार रुपी आय पर कर के प्रावधान. 

इस प्रकार के आय पर किसी भी प्रकार की छूट नहीं मिलती है और इस प्रकार के आय करमुक्त नहीं होते हैं. इस प्रकार प्राप्त पूरी धनराशि धारा 115बीबी के अंतर्गत सपाट 30% कि दर से कर आरोपित होगी. मूल्यांकन वर्ष (AY) 2014-15 में 1 करोड रुपए से अधिक  शुद्ध  आय पर 10%  उप कर यानी सरचार्ज और 3% शिक्षा चुंगी यानी एजुकेशन सेस लगेगा. ऐसे आय पर धारा  80C- 80U तक कोई छूट नहीं मिलता. लेकिन  करदाता धारा 87 ए के अंतर्गत रिबेट का दावा कर सकता है.

¶ लॉटरी इत्यादि से प्राप्त शुद्ध पुरस्कार राशि से सकल पुरस्कार राशि ज्ञात करना (Determination of the gross amount of reward from lotteries, races, etc.) 

सकल पुरस्कार धनराशि, अर्थात gross income

=

शुद्ध पुरस्कार धनराशि, अर्थात net income ÷ [1-(30%+ शिक्षा चुंगी)]

¶  प्रत्याभूतियों पर ब्याज (इंटरेस्ट ऑन सिक्योरिटीज) 

अगर प्रतिभूतियों पर प्राप्त ब्याज व्यवसाय या  पेशा  से लाभ या मुनाफा शीर्षक के अंतर्गत कर आरोपित नहीं किया गया है,  तो इसे अन्य स्रोतों से आय शीर्षक के अंतर्गत कर आरोपित किया जाता है. नगद (cash) या बकाया (accrual) आधार पर इसकी गणना की जाती है. यह करदाता के खतौनी (accounting) नियमों पर निर्भर करता है.

• धारा 10(15) के अंतर्गत  कुछ ब्याज करमुक्त होते हैं. जैसे...

 नेशनल डिफेंस गोल्ड बॉन्ड 1980, स्पेशल बीयरर  बॉन्ड  1991, पोस्ट ऑफिस कैश सर्टिफिकेट्स (5 वर्ष), इत्यादि से प्राप्त ब्याज.

व्यक्ति और हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) के मामले में 9% या 10% रिलीफ बॉन्ड्स से प्राप्त ब्याज.

सेंट्रल बैंक ऑफ सीलोन के इशू विभाग के अधीनस्थ प्रतिभूतियों पर ब्याज से आय,

गोल्ड डिपॉजिट स्कीम 1999 के अंतर्गत जारी गोल्ड डिपॉजिट बॉन्ड्स पर ब्याज.

¶ शुद्ध ब्याज से सकल ब्याज की गणना करना (Computation of gross interest from net interest received) 

Gross interest
=
Net interest ÷ (1- rate of TDS)

Note: TDS means tax deducted at source.

¶ कर मुक्ति और कटौती (exemption and dedication) 

लोक भविष्य निधि (PPF), सुकन्या समृद्धि योजना (SSY) इत्यादि पर प्राप्त ब्याज कर मुक्त होता है.

 बचत खाता पर प्राप्त ब्याज को करदाता के अन्य आयो के साथ  जोड़कर  ग्रॉस  टोटल इनकम की गणना की जाती है. और धारा 80TTA के तहत अधिकतम ₹10,000 तक की कटौती ग्रोस टोटल इनकम यानी सकल कुल आय से की जा सकती है. अर्थात बचत खाता से प्राप्त ब्याज अधिकतम 10 हजार रुपए तक करमुक्त कहा जा सकता है.

इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि आवर्ती जमा (recurring deposit) खाता और मियादी जमा (fixed/time deposit) खाता से प्राप्त ब्याज रुपी आय पूरी तरह से कर योग्य होता है.

सिक्के की आत्मकथा (Sikke Ki Atmakatha)



संछिप्त विवरण

यह सिक्का यानी धातु की मुद्रा की एक काल्पनिक आत्मकथा है. इसे एक साहित्यिक रचना और लेखक की कल्पना मात्र समझा जाना चाहिए. इसलिए पाठकों से यह आशा और निवेदन है कि किसी भी उद्देश्य के लिए इस आत्मकथा का उपयोग करते समय अपने विवेक का व्यवहार करें.

उत्पत्ति और नामकरण
मैं एक सिक्का हूं. अर्थात धातुई धन. यह मेरा जातिवाचक नाम है. क्योंकि मैं मेरे ही जैसे अनगिनत सिक्कों में से एक हूं. मैं सही तरह से नहीं जानता कि मेरा आविष्कार कब हुआ. लेकिन मैंने एक छात्र को अपने इतिहास की किताब को पढ़ते हुए सुना था कि किसी मुगल शासक ने भारत में चमड़े से बने सिक्कों के प्रचलन का प्रयास मुगल काल में किया था. मुझे ऐसा लगता है कि यद्यपि यह विचार अच्छा था, लेकिन दीर्घकाल में यह व्यवस्था चिरस्थाई होने लायक नहीं थी. इसलिए मेरा विश्वास है की शायद ही कोई चमड़े से बना सिक्का विश्व के किसी भी हिस्से में आज प्रचलित होगा. मैंने सुना है कि लोग मेरे आविष्कार से पहले वस्तुओं का विनिमय किया करते थे. इस व्यवस्था को वस्तु-विनिमय व्यवस्था या बार्टर सिस्टम कहा जाता था. कभी-कभी मैं अभी भी सुनता हूं कि कुछ पिछड़ी अर्थव्यवस्थाओं में यह प्रथा आज भी प्रचलन में है. इसके विपरीत प्लास्टिक धन, वर्चुअल धन, ऑनलाइन धन हस्तांतरण, इत्यादि के आविर्भाव के कारण मेरा अस्तित्व दूरगामी भविष्यत काल में खतरे में प्रतीत होता है. वस्तु-विनिमय व्यवस्था में कुछ बुनियादी समस्याएं थी; जैसे की दोहरी सम- घटना (डबल को-इंसिडेंस), मूल्यवान वस्तुओं और जैव उत्पादों जैसे पशु इत्यादि की अविभाज्यता ( इनडीविजिबिलिटी). शायद इसीलिए मुद्रा नामक एक विनिमय के साधन के आविष्कार की आवश्यकता का जन्म हुआ. मैं शायद धन का आदि अवतार हूं.

वर्तमान व्यवस्था
आजकल विश्व के लगभग प्रत्येक सर्वभौमिक देशों में मेरा उत्पादन अधिकारप्राप्त वैधानिक निकायों (अथॉराइज्ड स्टेच्यूटोरी बॉडीस) के द्वारा किया जाता है. इन निकायों को साधारण भाषा में केंद्रीय बैंक या मौद्रिक अभिकर्ता (मोनेटरी एजेंसी), इत्यादि के नाम से जाना जाता है. कुछ देशों में जातिवाचक (कामन) मुद्रा; जैसे यूरो (यूरोपियन यूनियन), रूबल (कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिपेंडेंट स्टेट्स), इत्यादि का प्रचलन भी हो सकता है. मैं सामान्यता धातु या मिश्र धातु का बना होता हूं. मैं जंग-रहित और अक्षय धातु या मिश्र धातु का बना होता हूं. जिससे मैं दीर्घकाल तक टिक सकूं. पुराने समय में मैं मूल्यवान धातु जैसे सोना, चांदी इत्यादि का भी बना होता था. आजकल मैं सामान्यतः लोहा या इस्पात-मिश्र धातु का बना होता हूं. इसमें निकल की परत  हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है. कई देशों में मेरा रंग  पीतल की तरह पीला हो सकता है. कई सिक्के दो रंग वाले भी होते हैं; जैसे भारत में ₹10 का सिक्का और इंग्लैंड में £2 (पाउंड) का सिक्का.

मेरे जीवन की कहानी
मैं अपने जीवन की कहानी आपको संछेप में बतलाना चाहता हूं. मेरा जन्म भारत में कुछ वर्षों पहले हुआ. मैं बहुत खुश था क्योंकि मैं चमक रहा था. और मैं अपने ही जैसे अनगिनत चमचमाते हुए सिक्कों  के बीच में था. मुझे एक जूट के थैले में अपने कई अन्य साथियों के साथ बांधा गया. ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं अपने जीवन की पहली यात्रा शायद एक मोटर गाड़ी में कर रहा था. मुझे नींद आ गई. जब मैं जागा तो मैंने देखा कि दोपहर का समय है. मैं अपने किसी भी साथी को नहीं देख पा रहा था. मैंने पाया कि मैंने काम करना शुरू कर दिया है. लोग मुझे किसी भी वस्तु के बदले विनिमय करने लगे थे. कुछ महीनों या वर्षों_क्योंकि मैं कैलेंडर या घड़ी नहीं देख पाता था_ के बाद मैं एक छोटे से बच्चे की हथेलियों में पहुंचा. उसका नाम फूचुंग था. उसने अपने पाउडर के डिब्बे वाले बैंक में मुझे डाल दिया. मुझे अपने व्यस्त कार्यक्रम से कुछ समय के लिए आराम मिला. उस पाउडर के डब्बे वाले बैंक में मुझे अपने ही जैसे कई सिक्के मिले. उनका मोल अलग-अलग था. उनमें से कुछ मुझसे बड़े थे और कुछ मुझसे छोटे थे. मैं उनसे बातें करने लगा और यह पाया कि उनकी भी कहानी लगभग मेरे जैसे ही थी. किसी ने मुझसे कहा कि मुझ पर 2013  अंकित है. अर्थात मेरा जन्म 2013 में हुआ था. और अब मैं नहीं चमकता था. यह स्पष्ट है कि मैं 3 साल का हो चुका था. और मैं अपने जन्म के समय की चमक खो चुका था. कुछ समय बाद मुझे लगने लगा कि मैं एक कारागार में हूं.

मुझे कुछ बच्चों द्वारा पढ़ी गई कहानियां याद है. पुराने जमाने में राजा, रानी, डाकू और समुद्री डाकुओं के समय में मैं सामान्यत: सोने का बना होता था. मेरे स्वामी मुझे गुप्त कक्षों में, गुफाओं में, जमीन के अंदर गाड़कर मेरी सुरक्षा करना चाहते थे. भगवान का शुक्र है कि मुझे जीने के लिए ऑक्सीजन, खाना और पानी की जरूरत नहीं पड़ती है. अन्यथा मैं आपको अपनी कहानी बताने के लिए जीवित नहीं रहता. मुझे यह भी याद है कि मुझे इसी प्रकार एक बार और आराम करने का अवसर मिला था. जब एक भक्त ने मुझे एक ईश्वर की प्रतिमा के चरणों में अर्पित किया था. मुझे हमेशा विभिन्न प्रकार के सुगंध मिलते रहते; जैसे फूलों और फलों इत्यादि की सुगंध. यह मेरे जीवन का शायद सबसे राजकीय समय था. लेकिन यह समय बहुत दिनों तक नहीं रहा.  एक बार मुझे पुरोहित जी ने खर्च कर दिया और इसी प्रकार कई हाथों को बदलते हुए मैं फिर से एक भक्त के द्वारा एक नदी में अर्पित कर दिया गया. वहां पर मैं नदी के तल में धीरे-धीरे आगे और पीछे बहता रहा. मैं वहां पर शायद एक लंबे समय तक रहा. फिर एक दिन मैं शायद किसी पवित्र मंदिर के किनारे पहुंच गया था. और एक शरारती और साहसी बच्चे ने मुझे पाया और उसने कुछ मिठाइयों के लिए मुझे खर्च कर दिया. मैं बाजार में फिर से अपने व्यस्त कार्यक्रम मे वापस आ गया.

जब उस बच्चे का बैंक भर गया तब मुझे आजादी मिली. उस बच्चे की मां ने उस बैंक को खोलकर सभी सिक्कों को बाहर निकाला. कई दिनों बाद मुझे ताजी हवा का आनंद प्राप्त हुआ. मुझे यह अच्छा लगा. उस बच्चे ने सभी सिक्कों को अपनी मां को दे दिया और उसकी मां ने उन्हें गिन कर उसके पिताजी को दे दिया. उसके पिताजी ने उस बच्चे को कुछ कागजी मुद्रा दि और उससे वादा किया कि अगर वह भविष्य में भी ऐसे ही पैसे बचाता रहेगा, तो उसके पिता उसे और अधिक धन देते रहेंगे. वह बच्चा शायद मेरे ही उम्र का था. वह बहुत ही प्यारा बच्चा था. मैं उसे हमेशा याद करता हूं. उसके पिता ने मुझे उसी दिन ही एक बस में यात्रा के समय खर्च कर दिया. मेरी पुरानी यात्रा फिर से आरंभ हो गई. मैंने कई हाथ प्रत्येक दिन बदले और मैंने इसे खुशी-खुशी किया. लेकिन जब भी मैं लोगों द्वारा किए जानेवाले बातों का ध्यान करता हूं तो मेरा दिल बैठ जाता है. मैंने लोगों को बातें करते हुए सुना है कि गैर कानूनी और अनैतिक तरीके से लाभ कमाने के लिए कुछ लोग मुझे पिघलाकर कई प्रकार के अन्य वस्तुएं बनाते हैं. शायद इसीलिए मैं कभी-कभी दुर्लभ हो जाता हूं. अचानक लोग मेरा साथ नहीं छोड़ना चाहते हैं. मैंने सुना है कई लोग और व्यापारी मेरी कमी के कारण समस्याओं से जूझते हैं. कई क्रेता आवश्यक सामान नहीं खरीद पाते और कई बार यात्रियों और बस चालकों या ऑटो रिक्शा चालकों के बीच मेरी किल्लत के कारण छोटे-मोटे झडप और झगड़े भी होते रहते हैं. मुझे यह अवस्था अच्छी नहीं लगती है. मुझे आश्चर्य होता है कि क्यों कानून उन लोगों को नहीं पकड़ते जो गैर कानूनी और अनैतिक रूप से लाभ के लिए मुझे पिघला देते है. जो भी हो यह समस्या स्थाई  न होकर  चक्रीय है. कभी-कभी मैं बाजार में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो जाता हूं और किसी को कोई प्रकार की समस्या नहीं होती: और कभी-कभी मैं दुर्लभ हो जाता हूं और लोग मेरे लिए झगड़ते भी हैं.

मेरा जीवन दर्शन
जो भी हो, मैं जानता हूं कि पदार्थ अविनाशी है. इसलिए मैं अब बिल्कुल नहीं डरता हूं. जिस भी चीज का जन्म हुआ है उसका मृत्यु अपरिहार्य है. यह जीवन का चक्र है. एक चक्र के पूरा होने के बाद उसे पुनः फिर से कार्यभूमि में अपने नए कर्तव्य के पालन के लिए वापस आना पड़ता है. मुझे महसूस होता है कि मेरा जन्म उन लोगों की सेवा के लिए हुआ था जो विनिमय अर्थात क्रय -विक्रय करना चाहते हैं. और मैं अपने कर्तव्य को बहुत ही संतोषजनक रुप से करता जा रहा हूं.

विदाई के शब्द
 मैं शायद आपको यह बताना भूल गया कि मैं एक ₹1 का सिक्का हूं. शायद हम भी कभी मिलेंगे.

अस्वीकरण: किसी भी प्राकृतिक या कृत्रिम व्यक्ति, प्राधिकरण या सत्ता से किसी भी रूप का मेल केवल संयोग मात्र है. इसलिए पाठकों से केवल पाठक-सुलभ नजरिया रखने की आशा करता हूं. धन्यवाद. 


• इस ब्लॉग को इंग्लिश में भी पढ़ा जा सकता है.
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WBHS XII Cost: श्रम लागत और पारिश्रमिक की विधियां (Labour Cost and Methods of Remuneration)

भूमिका 


श्रम उत्पादन का एक महत्वपूर्ण साधन है. श्रम लागत कुल उत्पादन लागत का सबसे बड़ा तत्व हो सकता है. श्रम जीवित लोगों से संबंधित है, और श्रम लागत सामान्यतः सबसे महंगा होता है. इसलिए श्रम लागत की निगरानी या नियंत्रण अति आवश्यक है. श्रम लागत के अध्ययन के लिए निम्नलिखित बातों को जानना आवश्यक है...

• श्रम लागत समय का हिसाब
• टाइम कीपिंग: इसकी विधियां (मेथड्स ऑफ टाइम कीपिंग): मेनुअल एंड मैकेनिकल
• अच्छी समय के हिसाब की विधि की विशेषता
• टाइम बुकिंग: टाइम बुकिंग की विधियां
• कार्य हीन समय (आइडल टाइम): इसके कारण
• पारिश्रमिक यानी वेतन या मजदूरी की गणना  करने  की विधियां

¶ टाइम कीपिंग


 किसी भी कार्यशाला जैसे कारखाना, फैक्ट्री, कार्यालय इत्यादि में मजदूरों या कर्मचारियों के आने-जाने का समय, कार्य में बिताया गया समय, कार्यहीन समय (idle time) , अतिरिक्त काम करने का समय (ओवरटाइम), इत्यादि का लिखित हिसाब रखना टाइम कीपिंग कहा जा सकता है.

टाइम कीपिंग का मुख्य उद्देश्य कर्मचारियों के वेतन की गणना और श्रम लागत और श्रमिकों का सुचारु प्रशासन करना है.

• टाइम कीपिंग की विधियां 

कर्मचारियों के कार्य पर आने और कार्य से जाने के समय का  लिखित हिसाब रखना अर्थात टाइम कीपिंग को दो तरह से की जा सकती हैं. पहला मानवीय तरीके से यानी manually और दूसरा यांत्रिक तरीके से अर्थात mechanically. दोनों ही विधियां फर्म का स्थान, कर्मचारियों की संख्या और प्रवृति,  उत्पादित वस्तुओं की प्रकृति, उत्पादन में व्यवहार होने वाले संपदाओं की प्रवृत्ति, भ्रष्टाचार की संभावनाएं, इत्यादि जैसे कारकों पर निर्भर करती हैं.

मानवीय विधियां (manual methods)

 I. हस्त-अंकन (hand recording) 
इस विधि में एक उपस्थिति पंजिका यानी अटेंडेंस रजिस्टर का उपयोग किया जाता है. इसमें सभी कर्मचारियों का नाम लिखा रहता है और उनके नाम के सामने महीने के प्रत्येक तारीख के लिए एक स्तंभ यानी कॉलम बना होता है. जिसमें वह प्रतिदिन अपने काम पर आने और काम से जाने का समय दर्ज करते हैं और हस्ताक्षर करते हैं. निरक्षर कर्मचारी के लिए कोई अधिकारी उनकी उपस्थिति दर्ज करते हैं. देर से आने और पहले जाने का समय और अनुपस्थिति को भी इसी पंजिका में लिखा जाता है.

यह विधि बहुत ही सरल और समझने में आसान है. आज भी कई सभ्य देशों में भी इसका उपयोग हो रहा है. यद्यपि  इसमें कर्मचारी अपनी उपस्थिति इत्यादि खुद लिखते हैं, यह गलत भी हो सकता है. इसलिए किसी विशेष अधिकारी को इस पर निगरानी रखनी पड़ सकती है. अनपढ़ कर्मचारियों के लिए भी यह विधि उपयुक्त नहीं है.

II. डिस्क/टोकन/चेक अंकन (disc/token/check रिकॉर्डिंग) 
इस विधि के अनुसार कर्मचारियों को एक धातु डिस्क दिया जाता है जिनपर प्रत्येक कर्मचारियों का पहचान संख्या अंकित रहता है. कार्यशाला के द्वार पर दो फलक (board) होते हैं. एक अंदर फलक (इन-बोर्ड) दूसरा बाहर फलक (आउट-बोर्ड). सभी कर्मचारियों का डिस्क या टोकन वाह्य-फलक पर उनके विशेष अंकित खूंटी पर टंगी रहती है. जब कोई कर्मचारी कार्यशाला में प्रवेश करते हैं, तो बाहरी-फलक से अपना टोकन उठाकर अंतरफलक में अपने खूंटी पर टांग देते हैं. प्रवेश करने की सामान्य समय के बाद अंतरफलक को हटा दिया जाता है. जिससे देर से आने वाले कर्मचारी अपने टोकन को एक अन्य संदूक या टोकरी में रखते हैं.
 उपस्थिति दर्ज करने के लिए जिम्मेदार कर्मचारी अंतरफलक पर टंगे टोकन के आधार पर उपस्थिति दर्ज करता है और देर से आने वाले कर्मचारियों की उचित उपस्थिति दर्ज करता है. जीन कर्मचारियों का टोकन  वाह्य-फलक पर टंगा होता है उन्हें अनुपस्थित माना जाता है. इन्हीं अभिलेखों के अनुसार कर्मचारियों का वेतन निर्धारित होता है.

इसी प्रकार कर्मचारी कार्यशाला से बाहर निकलते समय अंतरफलक से अपने टोकन को उठाकर बाहरी फलक मे डाल देते हैं.

• विधि से लाभ (advantages) 

1. यह विधि बहुत सरल है.
2. इस विधि को समझना आसान है.
3. इस विधि का उपयोग निरक्षर कर्मचारी भी आसानी से कर सकते हैं.
4. इस विधि में समय भी बहुत कम लगता है.

• इस विधि की कमियां (limitations)

1. कोई कर्मचारी किसी अन्य कर्मचारी का टोकन भी उठा कर अंतरफलक पर टांग सकता है जिससे अनुपस्थित कर्मचारी की भी उपस्थिति दर्ज हो जाएगी.
2. सामान्य अवस्थाओं में यह विधि उपयुक्त है. लेकिन देर से आने और पहले जाने, अतिरिक्त समय तक काम करने, इत्यादि की गणना करने के लिए अलग-अलग पंजी यानी रजिस्टर बनाना पड़ेगा. जोकि बहुत अधिक समय लेगा और खर्च बढ़ाएगा.
3. टोकन को देखकर उपस्थिति और अनुपस्थिति दर्ज करते समय गलती होने की संभावना रहती है.

यांत्रिक विधियां  (मेकेनिकल मेथड्स)

I. समय घड़ी विधि (टाइम क्लॉक मेथड)

इस विधि में प्रत्येक कर्मचारी को एक समय पत्र (टाइम कार्ड) दिया जाता है; जिसमें उसका नाम, संख्या व्यापार, श्रेणी, घंटा दर, विभाग का नाम, इत्यादि लिखा रहता है. यह सामान्यतः 1 सप्ताह के लिए जारी किया जाता है. इस समय पत्रों को एक विशेष प्रकार के घड़ी के विशेष हिस्से (slot) में डाला जाता है, और एक बटन दबाया जाता है. जिससे कर्मचारी के उपस्थिति का समय और तारीख उस पत्र पर दर्ज हो जाता है. और कर्मचारी अपने समय पत्र को आंतरिक टोकरी (in-rack) में डाल देता है. और बाहर निकलते समय इसी क्रिया को फिर से दोहराता है. जिससे उसके बाहर निकलने का समय उसके समय पत्र पर अंकित हो जाता है. और इसके पश्चात् वह इस टाइम कार्ड यानी समय पत्र को बाहरी टोकरी (आउट रैक) में रख देता है.
इस प्रकार कर्मचारी के कार्य पर आने, कार्य से जाने, देर से आने, पहले जाने, अतिरिक्त समय तक काम करने, अनुपस्थित रहने इत्यादि का अभिलेख आसानी से सप्ताह के अंत में किया जा सकता है. और इसी के आधार पर उसका वेतन निर्धारित होता है.

इस विधि के लाभ (advantages)

1. यह विधि किफायती है.
2. समय पत्र यानी टाइम कार्ड का  उपयोग वेतन या मजदूरी के निर्धारण में किया जा सकता है. टाइम कार्ड पर अंकित समय विश्वसनीय होता है. क्योंकि कर्मचारी इस से छेड़छाड़ नहीं कर सकते हैं.
3. उपस्थिति इत्यादि में किसी तरह की धोखाधड़ी की संभावनाएं न्यूनतम हो जाती है.

• इस विधि की कमियां (limitations) 

1. इस विधि में प्रारंभ में बहुत अधिक खर्च का भार उठाना पड़ता है. जो छोटे संस्थाओं के लिए संभव नहीं भी हो सकता है.
2. एक ही कर्मचारी अन्य कर्मचारियों का टाइम कार्ड भी व्यवहार कर सकता है, जिससे अनुपस्थित कर्मचारियों की उपस्थिति भी दर्ज हो जाएगी.

II. डायल अंकन विधि (डायल रिकॉर्डिंग मेथड)

इस विधि में हर कर्मचारी को एक विशिष्ट टिकट दी जाती है जो उसकी पहचान को सुनिश्चित करता है. इसमें एक डायल वाली घड़ी होती है जिसमें कई छेद होते हैं. प्रत्येक कर्मचारी अपने टिकट को उसके लिए निर्धारित छेद में डालते हैं, और डायल के भुजा को दबाते हैं. जिससे डायल के अंदर कागज का जो रोल होता है. उसमें उसके टिकट नंबर के साथ उसके आने का समय दर्ज हो जाता है. समान प्रक्रिया बाहर जाने के समय की जाती है. जिससे जाने का समय भी दर्ज हो जाता है.

• इस विधि से लाभ (advantages) 

1. यह विधि बहुत ही किफायती है.
2. इससे प्राप्त अभिलेख यानी समय का हिसाब विश्वसनीय होता है.
3. इसमें धोखाधड़ी की संभावनाएं न्यूनतम होती है.

• इस विधि की कमियां (limitations) 

1. प्रारंभिक खर्च बहुत अधिक होता है.
2. कोई एक कर्मचारी अन्य कर्मचारियों की उपस्थिति भी दर्ज कर सकता है.
3. कर्मचारी के देर से आने और पहले जाने, अतिरिक्त काम करने, अनुपस्थित होने, इत्यादि का हिसाब अलग-अलग करना कठिन हो सकता है.
4. यह विधि बहुत अधिक समय भी लेता है, क्योंकि डायल में छेद की संख्या सीमित होती है.

¶ समय का हिसाब रखने की अच्छी विधि की विशेषताएं (फीचर्स ऑफ अ गुड टाइम कीपिंग सिस्टम)


समय के हिसाब रखने की कारगर और दक्ष विधि की निम्नलिखित विशेषताएं हो सकती हैं...

1. टाइम कीपिंग की विधि ऐसी हो जिसमे कोई भी कर्मचारी किसी अन्य कर्मचारी की उपस्थिति इत्यादि दर्ज ना कर पाए. 2. विधि का सरल होना आवश्यक है, ताकि विभिन्न प्रकार के कर्मचारी जो निरक्षर भी हो सकते हैं इसे आसानी से समझ सकें और उसका व्यवहार कर सकें.
3. विधि बहुत अधिक खर्चीला नहीं होना चाहिए, क्योंकि छोटी संस्थाओं के लिए महंगी विधियों का व्यवहार आसान नहीं हो सकते हैं.
4. टाइम कीपिंग की विधि ऐसी देनी चाहिए जिसमें देर से आने, बाद में जाने  ओवरटाइम करने, अनुपस्थित रहने, इत्यादि का वस्तुनिष्ट (objective) और विश्वसनीय हिसाब स्वत: ही बहुत कम मेहनत से ही आसानी से प्राप्त हो जाए.
5. टाइम कीपिंग की विधि ऐसी होनी चाहिए जिसे कई कर्मचारी एक ही समय आसानी से व्यवहार कर सके. अगर कर्मचारियों को अपनी उपस्थिति दर्ज कराने इत्यादि के लिए बहुत अधिक समय खर्च करना पड़े, तो इससे कार्यहीन समय में वृद्धि होगी.

¶ टाइम बुकिंग 


कर्मचारियों के कार्य पर आने और काम से जाने के समय को दर्ज करने के अलावा कर्मचारी ने किस कार्य में प्रत्यक्ष रुप से अपना समय बिताया है या काम किया है इसकी भी गणना करना आवश्यक है. ताकि उसके द्वारा बिताए गए समय के लिए उसे जो मजदूरी दी जाती है उसे उस वस्तु, सेवा प्रक्रिया (प्रोसेस) के कुल लागत निर्धारण में शामिल किया जा सके. इसी प्रकार अगर कोई कर्मचारी अप्रत्यक्ष कार्यों में लिप्त है, तो भिन्न-भिन्न प्रकार के अप्रत्यक्ष कार्यों में बिताया गया समय भी उचित रूप से दर्ज करना आवश्यक है. ताकि इस समय के लिए उस कर्मचारी द्वारा प्राप्त वेतन को अप्रत्यक्ष लागत यानी ओवरहेड के रूप में विभिन्न वस्तु, सेवाओं या प्रक्रियाओं में आवंटित (allocate) की जा सके.

 इस प्रकार किसी कर्मचारी द्वारा कार्यशाला में बिताए गए समय को की विभिन्न वस्तुओं सेवाओं या उत्पादन प्रक्रियाओं के साथ चिन्हित करना ही टाइम बुकिंग कहलाता है.

• कारगर और दक्ष टाइम बुकिंग विधि की विशेषताएं 

1. जिस पंजी (रजिस्टर)  या पृष्ठ (sheet) पर टाइम बुकिंग की जाती है उसमें गलती नहीं होनी चाहिए.
2. कार्यहीन समय (idle time) को उत्पादक समय (productive time) के साथ नहीं दिखाना चाहिए. कार्यहीन  समय को किसी भी वस्तु, सेवा या उत्पादन प्रक्रियाओं के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए. इसका हिसाब एक अलग पंजी या पृष्ठ पर करना चाहिए.
3. टाइम बुकिंग की जाने वाली पंजी या पृष्ठ को अच्छी तरह से सुरक्षित रखना आवश्यक है, ताकि इसमें फेर बदल ना की जा सके और यह ना खोए.

• टाइम बुकिंग के लिए व्यवहार में लाए जाने वाले प्रपत्र और अभिलेख (फॉर्म्स एंड रिकार्ड्स यूज्ड फॉर टाइम बुकिंग)

टाइम बुकिंग के लिए निम्नलिखित प्रपत्र (form) और अभिलेख (record) का उपयोग किया जाता है.

1. दैनिक समय पृष्ठ (डेली टाइम शीट

इस विधि में कर्मचारी को एक दैनिक समय पृष्ठ (daily time sheet) दिया जाता है. जिसमें कर्मचारी प्रत्येक प्रकार के काम में बिताए गए समय को लिखता रहता है. वास्तव में जब किसी कार्य को शुरु करता है तो इसका समय टाइम शीट में लिख देता है और जैसे ही वह कार्य समाप्त होता है या कर्मचारी उस काम को करना बंद कर देता है, तो इसका भी समय टाइम शीट में लिख देता है. इसी प्रकार जब वह कार्य को फिर से शुरू करता है, तो उसका समय भी फिर से लिखता है. और जब कार्य पूरी तरह समाप्त हो जाता है, तो उसका भी समय लिखता है. और जब कोई दूसरा कार्य प्रारंभ करता है, तो उसका समय भी ऊपर बताए गए विधि के अनुसार टाइम शीट में लिखता रहता है. इस प्रकार उसके द्वारा बिताए गया कुल समय और उसके द्वारा बिताया गया उत्पादक समय के अंतर को ज्ञात करने पर कार्यहीन समय भी आसानी से पता चल जाता है. और उसके वेतन को विभिन्न प्रकार के वस्तुओं, सेवाओं और उत्पादन प्रक्रियाओं में आसानी से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रम लागत में भाग करके आवंटित किया जा सकता है.

2. सप्ताहिक समय पृष्ठ (वीकली टाइम शीट

सप्ताहिक समय पृष्ठ दैनिक समय पृष्ठ की तरह ही होता है. लेकिन यह पूरे 1 सप्ताह के लिए जारी किया जाता है. कर्मचारी प्रतिदिन अपने कार्य आरंभ और समाप्त होने का समय इस पृष्ठ पर दर्ज करता रहता है. और सप्ताह के खत्म होने पर इसे उचित अधिकारी के पास जमा कर देता है. जिससे उसके वेतन का निर्धारण और श्रम लागत को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष भाग में बांट कर उसके द्वारा उत्पादित वस्तुओं, सेवाओं या उत्पादन विधियों में उचित दर से आवंटित किया जाता है.

3. जॉब टिकट या जॉब कार्ड

प्रत्येक प्रकार के प्रक्रिया या जॉब के लिए सभी को एक जॉब  टिकट या जॉब कार्ड दिया जाता है. जब भी एक कर्मचारी उस जॉब पर कार्य शुरु करता है, तो उसमें इसका समय लिख देता है. और जैसे ही वह कार्य समाप्त होता है, तो उसका समय भी दर्ज लिख देता है. अगर कोई कार्य बहुत अधिक समय लेने वाला हो, तो कर्मचारी अगर बीच में किसी भी प्रकार का अल्पविराम (ब्रेक) लेता है, तो उसे भी इस जॉब कार्ड में दर्ज कर देता है. कार्य समाप्त होने पर इसे उचित अधिकारी के पास जमा कर दिया जाता है. जिससे उसका वेतन निर्धारित होता है; और श्रम लागत को उचित रूप से वर्गीकृत (classify) और आवंटित (allocate) किया जाता है.

4. टाइम-कम-जॉब कार्ड 

केवल जॉब कार्ड के जरिए कार्यकारी समय और कार्य हीन समय का तुलनात्मक अध्ययन करना और उनका सत्यापन करना आसान नहीं हो पाएगा. इसलिए जॉब कार्ड के साथ टाइम शीट का भी उपयोग किया जाता है. जिससे विभिन्न कार्यों पर बिताए गए कार्यकारी समय कर्मचारी द्वारा बिताए गए कुल समय और कार्य हीन समय का निर्धारण और तुलनात्मक अध्ययन और सत्यापन किया जा सके.


¶ कार्यहीन समय (आइडल टाइम

किसी भी श्रमिक द्वारा किसी कार्यशाला में एक निर्धारित समय बिताना आवश्यक होता है. लेकिन समय के हिसाब को देखकर यह पता चलता है, कि कर्मचारी द्वारा वास्तविक रुप से कार्य में बिताया गया समय उसके उपस्थिति के कुल समय से कम है. अर्थात कुछ समय तक श्रमिक ने कोई भी कार्य नहीं किया होता है. इस प्रकार किसी श्रमिक द्वारा कार्यशाला में बिताया गया वह समय जिसमें किसी वस्तु, सेवा, इत्यादि का उत्पादन नहीं होता है उसे उस श्रमिक का कार्य हीन समय या आइडल टाइम कहते हैं.

श्रमिक मनुष्य होते हैं. वे कंप्यूटर या यंत्र नहीं होते. इसलिए विभिन्न प्रकार के कारणों से कोई श्रमिक कुछ समय के लिए कार्यरत नहीं भी हो सकता है. सामान्यतः सभी प्रकार की उत्पादन इकाइयों में कुछ कार्यहीन समय अवश्य होता है. ऐसे कार्यहीन समय को सामान्य कार्यहीन समय (normal idle time) कहा जा सकता है. और कुछ विशेष दुर्घटना या परिस्थिति में किसी विशेष उत्पादन इकाई में कुछ विशेष कार्यहीन समय हो सकता है, जिन्हें असामान्य कार्यहीन समय (abnormal idle time) कहा जा सकता है.

• सामान्य कार्यहीन समय के कारण या उदाहरण 

1. फैक्ट्री के गेट से कार्यस्थल तक आने का समय.
2. एक कार्य से दूसरे कार्य में बदली का समय.
3. यंत्र को उत्पादन के लिए तैयार करने का समय.
4. प्राकृतिक आवष्यकताओं को पूरा करने का समय जैसे जलपान इत्यादि में बिताया गया समय.
5. निर्देश, कार्य सामग्री, औजार, ऊर्जा इत्यादि की कमी या विलंब, प्रतिकूल वातावरण इत्यादि.

• असामान्य कार्य हीन समय के कारण या उदाहरण 

1. यंत्र का खराब होना.
2. लंबे समय तक बिजली का ना होना.
3. हड़ताल या बंदी होना.
4. प्राकृतिक आपदाओं के कारण फैक्ट्री का बंद होना.
5. फर्म के अन्य विभागों के कारण उत्पादन कार्य में रुकावट दुर्घटना इत्यादि.

¶ पारिश्रमिक गणना की विधियां (मेथड्स ऑफ रेमुनरेशन

जिन विधियों के अनुसार श्रमिकों के वेतन या मजदूरी की गणना की जाती है उन्हें परिश्रमिक गणना की विधियां कहा जा सकता है.

•  एक अच्छी पारिश्रमिक गणना विधि की विशेषताएं (features of a good wage payment method) ...

  1. यह न्यायोचित, तर्कसंगत, निष्पक्ष, सरल और किफायती (economic or cost effective) होना चाहिए.

2. पारिश्रमिक की गणना कुशलता, श्रम, समय, दक्षता, इत्यादि के आधार पर होना चाहिए; जिससे समान कार्य के लिए समान पारिश्रमिक सुनिश्चित हो सके.

3. यह विधि ऐसी होनी चाहिए जो श्रमिकों के पलायन (employee turnover), अनुपस्थिति (absentism), देर से आने (late arrival), और कार्य हीन समय (idle time) को न्यूनतम कर सके.

4. यह विधि ऐसी होनी चाहिए जो कुल पारिश्रमिक को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष भागों में आसानी से बांट सके; और अप्रत्यक्ष पारिश्रमिक को विभिन्न कार्यों में तर्कसंगत तरीके से आवंटित कर सके.

5. यह लोचशील (flexible) होना चाहिए ताकि इसमें आवश्यकता, परिस्थिति और समय के अनुसार आवश्यक और उचित परिवर्तन की जा सके.

6. इसके कोई भी प्रावधान गैर कानूनी ना हो.

¶  कुछ विशेष विधियों की चर्चा निम्नलिखित हैं ...

I. समय दर व्यवस्था (टाइम रेट सिस्टम) 

इस व्यवस्था में श्रमिक को वेतन या मजदूरी उसके द्वारा बिताए गए कार्यरत समय पर एक पूर्व निर्धारित समय मजदूरी दर के हिसाब से दी जाती है. उदाहरण के लिए अगर कोई श्रमिक किसी दिन 8 घंटे काम करता है और उसका समय वेतन दर दो रुपए प्रति घंटा हो, तो उसे उस दिन की मजदूरी 16 रूपय (=₹2 X 8) मिलेगी. इसी प्रकार किसी सप्ताह या महीने में बिताए गए कुल कार्यरत समय और समय मजदूरी दर की जानकारी होने पर किसी भी श्रमिक का वेतन आसानी से ज्ञात किया जा सकता है.

 समय मजदूरी दर का निर्धारण उद्योग और फर्म में क्रमशः श्रमिकों के वेतन से जुड़े क्रॉस सेक्शन और टाइम सीरीज आंकड़ों के अनुसार एक मानक दर (स्टैंडर्ड रेट) के रुप में की जाती है. इस दर को फर्म और कार्य की विशिष्टता के अनुसार समायोजित भी किया जा सकता है.

यह व्यवस्था निम्नलिखित परिस्थितियों में उपयुक्त हो सकती है...
1. अत्यंत कुशल कर्मचारियों के लिए
2. अत्यंत अकुशल कर्मचारियों और प्रशिक्षितों के लिए.
3. जब कर्मचारी अपने कार्य के लिए दूसरों पर आश्रित हो.
4. जब कोई कार्य इससे पहले किए गए कार्यों पर निर्भर हो . 5. जब उत्पादन की इकाइयां समान गुण वाली ना होने के कारण उनकी गिनती आसान ना हो.
6. जब व्यक्तिगत उत्पादन की गणना के लिए अत्यधिक निगरानी की आवश्यकता पड़े.
7. बहुत अधिक उत्कृष्ट और गुणवत्ता वाली सामग्री के उत्पादन के लिए.

• व्यवस्था से लाभ (advantages

1. मजदूरी का निर्धारण आसानी से किया जा सकता है.
2. श्रमिकों द्वारा अपना वेतन आसानी से जांच की जा सकती है. क्योंकि उन्हें अपने कार्य करने का समय पता होता है और उन्हें अपना वेतन दर भी पता होता है.
3. कर्मचारी पहले से ही निश्चित रहता है, कि उसे कितना वेतन मिलेगा.
4. अगर किसी कार्य में गुणात्मकता (quality) अधिक महत्वपूर्ण हो, तो इस विधि का पालन करना सही होता है.
5. जब श्रमिक के द्वारा किए गए काम कर निर्धारण करना आसान नहीं होता, तब यह व्यवस्था उपयुक्त होता है.

• इस विधि की कमियां (disadvantages

1. इस व्यवस्था में कुशल और अकुशल कर्मचारियों को समान समय के लिए समान वेतन मिलता है जो कि अनुचित है.
2. इसमें दक्षता को पुरस्कृत नहीं किया जाता.
3. इस व्यवस्था में कर्मचारी एक काम को धीरे-धीरे करके अपने द्वारा किए गए कार्यरत समय को बढ़ाकर अधिक वेतन प्राप्त करने का प्रयास कर सकते हैं.
4. श्रमिकों की ऐसी प्रवृति पर रोकथाम के लिए अन्य कर्मचारियों को निगरानी पर रखना पड़ सकता है.
5. दक्ष कर्मचारी असंतुष्टि के कारण कार्य संस्था को छोड़ कर जा भी सकते हैं. जिससे इंप्लॉई टर्नओवर में वृद्धि होगी.

II. टुकड़ा दर व्यवस्था (पीस रेट सिस्टम



इस व्यवस्था में मजदूरी या वेतन की गणना श्रमिक द्वारा उत्पादित इकाइयों की संख्या पर आधारित होता है. टुकड़ा दर की गणना  श्रमिकों के मानक उत्पादकता (स्टैंडर्ड प्रोडक्टिविटी)  के आधार पर  निर्धारित की जाती है. टुकड़ा दर दो प्रकार के हो सकते हैं_ सरल टुकड़ा दर (स्ट्रेट पीस रेट) और भिन्नात्मक टुकड़ा दर (डिफरेंशियल पीस रेट).

• सरल टुकड़ा दर के अनुसार मजदूरी की गणना का सूत्र...

मजदूरी = उत्पादित वस्तुओं की इकाइयां X टुकड़ा दर प्रति इकाई. उदाहरण के लिए अगर कोई श्रमिक 1 दिन में 10 कलम बनाता है. और प्रत्येक कलम बनाने के लिए उसे अगर दो रुपए मजदूरी मिलती है. अर्थात टुकड़ा दर दो रुपय है, तो उस दिन उसकी मजदूरी 20 (=₹2X10) रूपय होगी .

वास्तव में टुकड़ा दर और समय दर में कोई मौलिक अंतर नहीं है. ऊपर के उदाहरण में अगर यह मान लिया जाए, कि मजदूर  को 1 दिन में 8 घंटे काम करने पड़ते हैं, तो उसका समय दर ₹2.50 (=₹20÷8) होगा.

इस विधि से लाभ (एडवांटेजेस) 

1. यह विधि समझने और व्यवहार करने में बहुत आसान है.
2. इस व्यवस्था के अंतर्गत कुशल कर्मचारी के पास अधिक आय करने का अवसर होता है.
3. इस व्यवस्था में अधिक उत्पादन करना कर्मचारियों के लिए अधिक फलदाई होता है. इसलिए कुल उत्पादन में वृद्धि होने के कारण प्रति इकाई स्थिर लागत यानी एवरेज फिक्सड कॉस्ट में कमी आती है.
4. कार्य हीन समय में कमी आती है.
5. इस व्यवस्था में किसी वस्तु सेवा या प्रक्रिया से संबंधित श्रम लागत आसानी से पहले ही पता चल जाता है.

इस विधि की कमियां (लिमिटेशन) 

1. इस व्यवस्था में अधिक से अधिक उत्पादन करने की स्पर्धा होती है. इसके कारण कच्चा सामग्री इत्यादि जैसे संपदाओं का दुरुपयोग और बर्बादी हो सकती है.
2. इस व्यवस्था में अधिक उत्पादन के होड़ वस्तुओं और सेवाओं की गुणवत्ता में कमी आ सकती है.
3. कुछ कर्मचारी ऐसे भी होते हैं जो कुछ दिन अधिक मजदूरी कमाकर कई दिनों तक कार्य पर नहीं आते और अनुपस्थित रहते हैं. इस प्रकार जहां ऐसे कर्मचारियों की अधिकता है वहां यह विधि कारगर नहीं होगा.
4. कुछ कर्मचारी अत्यधिक परिश्रम भी कर सकते हैं जो उनके सेहत के लिए अच्छा नहीं होगा इसका प्रभाव उनकी उत्पादकता पर पड़ेगा.
5. अगर किसी दिन कोई कर्मचारी को काम की कमी के कारण कोई भी काम नहीं मिला, तो उस दिन का उसका वेतन शून्य होगा.
6. एक ही जगह पर काम करने वाले श्रमिको का वेतन अलग-अलग होने के कारण उनमें असंतोष की भावना पनप सकती है.
7. वास्तव में टुकड़ा दर का निर्धारण एक बहुत आसान प्रक्रिया नहीं है.

• भिन्नात्मक टुकड़ा दर (डिफरेंशियल पीस रेट)


इस व्यवस्था में उत्पादन के आयतन के विभिन्न स्तरों पर विभिन्न मजदूरी दर निर्धारित की जाती है अर्थात उत्पादन के किस स्तर तक मजदूरी दर कब रहती है और इस स्तर से ऊपर से अधिक उत्पादन करने पर मजदूरी दर अधिक रहती है इस प्रकार दो या दो से अधिक उत्पादन के आयतन के स्तर के लिए भिन्न भिन्न मजदूरी दर के अनुसार एक मजदूर का की मजदूरी निर्धारित की जा सकती है सामान्यता सामान्य सामान्यतया यह व्यवस्था बिस्तर पर आधारित है कि जब श्रमिक उत्पादन के स्तर पर जाकर थकने लगेंगे तो उन्हें और अधिक दर से मजदूरी देकर और अधिक परिश्रम करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा उदाहरण के लिए अगर कोई श्रमिक किसी वस्तु के 100 इकाई का उत्पादन करता है, तो उसे प्रतीक आई दो रुपए की दर से मजदूरी मिलती है और अगर वह सबसे अधिक इकाइयों का उत्पादन करता है तो इस प्रकार अतिरिक्त उत्पादन इकाइयों पर उसे 2 रुपए 10 पैसे या तीन रुपए की दर से मजदूरी दी जा सकती है. अगर सुनील ने डेढ़ सौ कलम बनाए, तो उपरोक्त उदाहरण के अनुसार उसकी मजदूरी ₹305 (=100X₹2+50X₹2.10) होगी.

इस व्यवस्था के दो विशेष उदाहरण निम्नलिखित हैं...

• टेलर का भिन्नात्मक टुकड़ा व्यवस्था (ट्रेलर्स डिफरेंशियल पीस रेट सिस्टम) 

इस व्यवस्था के अनुसार मजदूरी निर्धारण के दो भिन्न दर होते हैं. एक दर टुकड़ा दर का 83 प्रतिशत होता है और दूसरा टुकड़ा दर का 120% होता है. पहला दर उनके लिए लागू होता है जो मानक उत्पादन के स्तर तक नहीं पहुंच पाते और दूसरा दर यानी 120 प्रतिशत उनके लिए है जो मानक उत्पादन स्तर या उससे अधिक उत्पादन कर पाते हैं. इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इस व्यवस्था में मानक उत्पादन स्तर या मानक उत्पादन समय का पूर्व निर्धारण करना आवश्यक है.

श्रमिकों की दक्षता निम्नलिखित सूत्रों से ज्ञात की जा सकती है ...
दक्षता = (मानक समय ÷ वास्तविक कार्यकारी समय) X 100%

इसी प्रकार उत्पादकता के आधार पर भी दक्षता की माप निम्नलिखित सूत्र से की जा सकती है...

 दक्षता = (वास्तविक उत्पादन ÷ मानक उत्पादन) X 100%

यह व्यवस्था यह सुनिश्चित करती है कि प्रत्येक श्रमिक कम से कम मानक उत्पादन स्तर तक पहुंचने का अवश्य प्रयास करें. इस प्रकार कार्यहीन समय न्यूनतम हो जाता है. और कर्मचारियों द्वारा कामचोरी करने की प्रवृत्ति में कमी आती है.  लेकिन अगर दक्षता में कमी के अलावा किसी और कारण से कोई कर्मचारी किसी दिन मानक उत्पादन स्तर तक नहीं पहुंच पाता है, तो उसे बहुत अधिक आर्थिक नुकसान होता है. क्योंकि पहला दर बहुत कम है.

• मेरिक का भिन्नात्मक टुकड़ा दर व्यवस्था (मेरिक्स डिफरेंशियल पीस रेट सिस्टम)

मजदूरी निर्धारण कि यह व्यवस्था उपरोक्त टेलर की व्यवस्था का मामूली रूपांतरण है. इस व्यवस्था में जो श्रमिक मानक उत्पादन स्तर तक नहीं पहुंच पाते उन्हें आर्थिक रूप से दंडित नहीं किया जाता. अर्थात उन्हें सामान्य टुकड़ा दर से ही मजदूरी दी जाती है. लेकिन जो श्रमिक मानक उत्पादन स्तर तक पहुंच पाते हैं उन्हें सामान्य दर से थोड़ा अधिक और जो मानक उत्पादन स्तर से अधिक उत्पादन कर पाते हैं उन्हें थोड़ा और अधिक टुकड़ा दर से मजदूरी दी जाती है. इस प्रकार जो कर्मचारी दक्ष नहीं भी हैं उन्हें भी अपने मेहनत के अनुसार सामान्य दर से मजदूरी प्राप्त हो जाती है. और जो श्रमिक कुशल है और मेहनती है, अपनी मेहनत और दक्षता से अधिक वेतन या मजदूरी कमा सकते हैं. विशेष रुप से इस व्यवस्था में  3 भिन्न-भिन्न मजदूरी दर है_ 83⅓% दक्षता तक सामान्य टुकड़ा दर से; 83⅓% से लेकर 100% दक्षता तक 110% सामान्य टुकड़ा दर से; और 100% से अधिक दक्षता पर उत्पादन के लिए सामान्य टुकड़ा दर का 120% की दर से वेतन दिया जाता है.

इस व्यवस्था को विविध टुकड़ा दर व्यवस्था यानी मल्टीपल पीस रेट सिस्टम भी कहा जाता है.

¶ प्रीमियम बोनस योजनाएं 


 बोनस योजना का उद्देश्य दक्ष कर्मचारियों को उनकी दक्षता के लिए आर्थिक रूप से पुरस्कृत करना अर्थात सामान्य वेतन से अधिक मजदूरी देना. ताकि वे और अच्छा प्रदर्शन करने के लिए प्रोत्साहित होते रहें. योजनाओं में दक्ष कर्मचारियों द्वारा समय में जो बचत की जाती है उसके लिए भी उन्हें एक पूर्व निर्धारित वेतन दर से अतिरिक्त मजदूरी प्रदान की जाती है. जिसे बोनस कहा जाता है. इस प्रकार बोनस की गणना के लिए यह आवश्यक होता है कि किसी भी कार्य या उत्पादन के लिए मानक समय या मानक उत्पादन स्तर का पूर्व निर्धारण कर लिया जाए. उपरोक्त चर्चाओं में यह उल्लेख किया गया है कि कोई भी मानक का निर्धारण समय और गति अध्ययन (टाइम एंड मोशन स्टडी) के अनुसार की जाती है.

ऐसी दो मुख्य योजनाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है...

• हेलसी योजना (Halsey scheme)

इस योजना की प्रमुख विशेषताएं या मान्यताएं निम्नलिखित हैं ...
1. इसमें समय दर पूर्व निर्धारित होता है. और यह श्रमिकों को किसी भी अवस्था में दिया जाता है.
2. प्रत्येक कार्य या प्रक्रिया के लिए मानक समय या मानक उत्पादन आयतन का निर्धारण किया जाता है.
3. अगर कोई श्रमिक मानक समय से कम में अपना कार्य पूरा कर लेता है, तो बचाए गए समय के 50% पर उसे टुकड़ा दर से बोनस दिया जाता है. इस प्रकार नियोक्ता यानी मालिक को बचाए गए समय के 50% का लाभ मिलता है.

उदाहरण के लिए अगर किसी कार्य को करने के लिए मानक समय (time allowed) 40 घंटे हैं और अगर कोई श्रमिक इस कार्य को 30 घंटे (time taken) में पूरा कर लेता है, तो उसके द्वारा बचाया गया समय (time saved) 10 घंटे होता है. इस अवस्था में 30 घंटों के लिए उसे सामान्य दर से मजदूरी मिलेगी और 10 घंटे का आधा यानी 50% अर्थात 5 घंटे के लिए उसे सामान्य मजदूरी दर से बोनस दिया जाएगा. अगर ऐसे श्रमिक का मजदूरी दर 5 रुपए प्रति घंटा हो, तो उसका सामान्य मजदूरी 150 रुपए (=₹5 X 30) और बोनस 25 (=₹5 X ½ X 10) रुपए होगा. यानी उसका कुल मजदूरी 175 रुपय होगी.

इस योजना का लाभ (एडवांटेजेस) 

1. यह बोनस योजना समझने में और व्यवहार करने में बहुत ही सरल है.
2. अकुशल कर्मचारियों को इस योजना के कारण कोई आर्थिक नुकसान नहीं होता. क्योंकि उनका मौलिक मजदूरी दर निश्चित होता है. लेकिन कुशल कर्मचारियों के पास अधिक बोनस अर्जित करने का विकल्प होता है.
3. इस योजना के कारण कर्मचारियों की कार्य कुशलता में वृद्धि होती है. जिससे फर्म (व्यवसायिक संस्था) को आर्थिक लाभ मिलता है. क्योंकि उत्पादकता में वृद्धि होती है और कार्यहीन समय में कमी आती है.
4. कर्मचारियों द्वारा बचाई गई समय का लाभ कर्मचारियों और मालिकों को बराबर-बराबर मिलता है.

इस योजना की कमियां (लिमिटेशंस)

1. इस विधि में योजना में कर्मचारी ज्यादा बोनस अर्जित करने के लिए अधिक से अधिक समय बचाने का प्रयास कर सकते हैं जिससे उत्पादित वस्तुओं सेवाओं या उत्पादन प्रक्रिया की गुणवत्ता में कमी आ सकती है.
2. इसी प्रकार कार्य को जल्दी-जल्दी समाप्त करने की हड़बड़ी में दुर्घटना भी हो सकती है. जिससे श्रमिक या फर्म को कई प्रकार के नुकसान हो सकते हैं.
3. कुछ कर्मचारी संगठनों को यह भ्रांति होती है कि कर्मचारी द्वारा बचाई गई समय का लाभ कंपनी को नहीं मिलना चाहिए. जिससे विवाद और असंतोष की भावना जन्म लेती है.
4. अन्य बोनस योजनाओं की अपेक्षा इस योजना में बोनस दर कम है.

• रोवन योजना (Rowan scheme)

बोनस की इस योजना की कुछ मुख्य विशेषताएं निन्नलिखित हैं...

1. इसमें समय दर निश्चित होता है. अर्थात श्रमिक को निश्चित दर से किए गए कार्य पर मजदूरी मिलता है.
2. इसमें बचाए गए समय के एक भाग पर बोनस दिया जाता है.
3. अन्य योजनाओं की तरह इसमें बोनस का दर पूर्व निर्धारित नहीं होता. बल्कि मानक समय का जितना प्रतिशत समय बचाया जाता है उसी अनुपात में कार्यरत समय पर सामान्य मजदूरी दर से बोनस की गणना की जाती है.
4. इस योजना में भी मालिकों को बचाए गए समय के एक भाग का लाभ मिलता है.

 उपरोक्त उदाहरण के अनुसार सामान्य मजदूरी 150 रुपए (=30 X ₹5) होगा. लेकिन बोनस ₹37.50 (=10/40 X 30 X ₹5) होगा.

 इस प्रकार बोनस का सूत्र...

बोनस= (बचाया गया समय ÷ मानक समय) X  कार्यरत समय X समय मजदूरी दर. 

Bonus = Time saved (TS) / Time allowed (TA) X Time taken (TT) X Time rate. 

 इस योजना के लाभ (advantages) 

1. इस योजना में बचाए गए समय पर किसी पूर्व निर्धारित (जैसे 50% इत्यादि) दर से बोनस नहीं दिया जाता. बल्कि मानक समय का जितना भाग बचाया गया है उसी अनुपात पर कर्मचारी को बोनस दिया जाता है. अर्थात या योजना अधिक तर्कसंगत है.
2. इस योजना के अनुसार 50% से अधिक समय बचाने पर बोनस में वृद्धि की दर क्रमशः घटने लगती है. इस प्रकार कर्मचारियों द्वारा कार्य को बहुत अधिक जल्दी समाप्त करने की भी एक सीमा तय हो जाती है. जिससे उत्पादन की गुणवत्ता बनी रहती है.
3. इस योजना के अनुसार कुशल कर्मचारियों को पुरस्कार स्वरूप उनकी दक्षता के अनुरूप बोनस दिया जाता है.
4. इस योजना में भी बचाए गए समय के एक भाग का लाभ मालिकों को मिलता है.

इस योजना की कमियां (limitations)

1. इस योजना में भी ऐसी भ्रांति (doubt) होती है कि बचाए गए समय का लाभ मालिकों को भी मिलता है. जिससे विवाद और असंतोष की भावना जन्म लेती है.
2. किसी भी अवस्था में बोनस का समय मानक समय के 25% से अधिक नहीं हो पाता.
3. कर्मचारियों द्वारा बचाई गई समय केवल उनकी कार्यकुशलता पर ही निर्भर नहीं करता. कई अन्य कारक जैसे यंत्रों की विशेषता, कच्ची सामग्री की गुणवत्ता, इत्यादि पर भी यह निर्भर करता है. इस प्रकार अन्य कारकों के कारण भी कर्मचारी का बोनस प्रभावित होता है.

• हेलसी और रोवन योजनाओं का तुलनात्मक अध्ययन 

दोनों योजनाओं की समानताएं...

1. दोनों ही योजनाओं में समय मजदूरी दर निश्चित होती है.
2. दोनों ही योजनाओं में कार्य या प्रक्रिया को समाप्त करने का मानक समय पूर्व निर्धारित रहता है.
3. बोनस की धनराशि बचाए गए समय पर निर्भर करती है.
4. कर्मचारी और मालिक दोनों ही बचाए गए समय का लाभ प्राप्त करते हैं.
5. दोनों ही योजनाओं में उत्पादकता जितनी ही बढ़ेगी प्रति इकाई स्थित लागत क्रमशः घटती जाएगी.
6. अगर मानक समय का आधा समय बचा लिया जाए, तो दोनों ही योजनाओं के अनुसार बोनस की धनराशि समान होगी.

 दोनों योजनाओं में असमानता 

1. बचाया गया समय मानक समय के आधा से कम हो, तो हेलसी योजना के अपेक्षा रोवन योजना के अनुसार अधिक बोनस मिलेगा.
2. हेलसी योजना में बचाए गए समय के आधा पर बोनस मिलता है. लेकिन रोवन योजना में बचाए गए समय और मानक समय के अनुपात के अनुसार बोनस मिलता है.
3. हेलसी स्कीम में अगर अधिक समय बचाया गया, तो बोनस भी अधिक होगा. लेकिन रोवन योजना में ऐसा नहीं होता है. अगर मानक समय के आधा से ज्यादा समय बचाया गया तो बोनस घटने लगेगा.

WBHS XII Cost: सामग्री लागत (Cost of Material)


सामग्री लागत यानी कॉस्ट ऑफ मटेरियल 


¶ सामग्री बही (स्टोर्स लेजर) और जारी किए गए सामग्री ( मटेरियल) के मूल्यांकन (प्राइसिंग) की विधि [Stores Ledger and methods of pricing the material issues] 

 स्टोर्स लेजर यानी सामग्री बही एक ऐसा विवरण (statement/description) अभिलेख (record) है जिसमें खरीदे गए सामग्री, जारी (issue) किए गए सामग्री, और सामग्री के शेष-अंक (balance) और उनके मूल्य (value) को व्यवस्थित रुप से तारीख के क्रम में लिपिबद्ध किया जाता है. 

क्रय किए गए सामग्रियों का क्रय मूल्य आसानी से पता रहता है. लेकिन विभिन्न समय पर खरीदे गए एक ही सामग्री के भिन्न-भिन्न दर (rate) हो सकते हैं. इसलिए उंहें किसी जॉब या वर्क आर्डर के लिए जारी करते समय उनके दर के निर्धारण में समस्या आ सकती है. इसलिए किसी उचित विधि (जैसे LIFO, FIFO, इत्यादि) के आधार पर जारी किए गए सामग्री के दर का निर्धारण किया जाता है. और इस प्रकार शेष बची सामग्री (closing stock) का मूल्य और वर्तमान जॉब या वर्क आर्डर के कुल सामग्री लागत (total material cost) और कुल लागत  के निर्धारण में  स्टोर्स  लेजर का एक महत्वपूर्ण स्थान है. 

¶ जारी किए गए सामग्री के दर निर्धारण की कुछ महत्वपूर्ण विधियां निम्नलिखित हैं... 

• FIFO ( first in first out) 
• LIFO ( last in first out) 
• Simple average method 
• Weighted average method 

I. FIFO (पहले आया: पहले गया) 

इस विधि के अनुसार यह माना जाता है कि जो सामग्री पहले खरीदी गई थी उत्पादन के लिए उसे ही सर्वप्रथम जारी किया जाता है. इस प्रकार सबसे अंत में खरीदी गई सामग्री शेष बची रह जाती है. और क्लोजिंग स्टॉक का मूल्य सबसे अंत में खरीदी गई सामग्री के दर के अनुसार निर्धारित होता है. 
वास्तव में ऐसे सामग्री जो समय के साथ खराब हो सकते हैं उन्हें उत्पादन में पहले उपयोग किया जाता है. जिससे सबसे अंत में खरीदे गए सामग्री ही शेष बचे और पुरानी सामग्री का उपयोग हो जाए. लेकिन यह मान्यता कई प्रकार के उद्योगों में सही नहीं भी हो सकती है. केवल सामग्री जारी करने की दर के निर्धारण के लिए ऐसी कल्पना की जाती है. 

उदाहरण के लिए अगर 5, 10 और 15 जनवरी 2017 को 100 kg, 200 kg, और 300 kg सामग्री क्रमशः ₹1, ₹2, और ₹3  की दर से खरीदी गई हो,... 

और अगर 20 जनवरी को 250 kg सामग्री उत्पादन के लिए जारी करेगी गई हो, तो इस विधि के अनुसार ...

जारी किए गए सामग्री का मूल्य ₹400 (=100 X ₹1 + 150 X ₹2)

और

क्लोजिंग स्टॉक का मूल्य ₹1,000 (=50 X ₹2 + 300 X ₹3) होगा. 

• इस विधि का लाभ (advantages) 

1. इस विधि को समझना और उपयोग करना बहुत आसान है.
2. यह विधि वास्तविकता पर आधारित है क्योंकि जिस क्रम में सामग्री खरीदी जाती है उसी क्रम में उनका उपयोग उत्पादन के लिए किया जाता है. 
3. इस विधि की मान्यता के अनुसार सबसे अंत में खरीदे गए सामग्री शेष बच जाते हैं और उनका मूल्य निर्धारण वर्तमान  बाजार मूल्यों के दर पर किया जाता है. 
4. जब सामग्री का बाजार मूल्य घटता है, तो ऐसी अवस्था में यह विधि अच्छे परिणाम देता है.
5. यह विधि विशेष रूप से धीमी गति से उपयोग होने वाले भारी सामग्री हैं जिनका इकाई दर बहुत अधिक होता है.
6. जब क्रय और जारी की घटनाएं बहुत अधिक नहीं होती और सामग्री के मूल्य बहुत अधिक परिवर्तित नहीं होते हैं, तो यह विधि कारगर साबित होता है. 


• इस विधि की बुराइयां/कमियां/खामियां (limitations) 

1. जिस दर पर सामग्री जारी की गई है वह दर वर्तमान आर्थिक मूल्य नहीं भी दर्शा सकता है.
2. जब खरीदे गए सामग्री की मात्रा में बहुत अधिक अंतर होता है, तो यह विधि क्लोजिंग स्टॉक और तैयार सामग्री  (फिनिश्ड स्टॉक) का सटीक मूल्यांकन नहीं कर पाएगी.
3. मूल्य वृद्धि की अवस्था में क्लोजिंग स्टॉक और निर्मित सामग्री या वस्तु का मूल्य वर्तमान मूल्य से बहुत अलग/कम होगा.
4. अगर बहुत कम मात्रा में सामग्रियों को खरीद कर लाया जाता है और इनका क्रय-दर अगर भिन्न हो, तो एक साथ बहुत सारे दरों का हिसाब रखना पड़ेगा. जो अनावश्यक समय और ऊर्जा को खर्च करेगा.
5. भिन्न भिन्न धर्म के उपयोग के कारण विभिन्न सामग्रियों के उत्पादन लागत या किसी कार्य को पूरा करने की लागत का तुलनात्मक अध्ययन करना उचित (तर्कसंगत) नहीं होगा.

II. LIFO (अंत में आया: पहले गया) 

सामग्री जारी करने के दर के निर्धारण के लिए इस विधि की यह मान्यता है कि सबसे अधिक में खरीदी गई सामग्री को उत्पादन या उपयोग के लिए सबसे पहले जारी किया जाता है और इस प्रकार सबसे पहले खरीदी गई सामग्री या तो सबसे अंत में उपयोग में लाई जाती है या क्लोज क्लोजिंग स्टॉक के रूप में बच जाती है. इस प्रकार क्लोजिंग स्टॉक का मूल्यांकन वर्तमान बाजार दर की अपेक्षा पुरानी दरों पर होती है.

FIFO विधि मैं वर्णित उदाहरण के अनुसार अगर 250 किलो के बजाय 350 किलो सामग्री जारी की जाए, तो...

जारी किए गए सामग्री का मूल्य ₹1,000 (=300 X ₹3 + 50 X ₹2)
 और
क्लोजिंग स्टॉक का मूल्य 400 (=100X₹1+150X₹2) होगा.

• इस विधि से लाभ (advantages)

1. यह विधि को समझना और व्यवहार करना बहुत आसान है.
2. जब बाजार दर बहुत अधिक परिवर्तनशील ना हो और क्रय लेनदेन की संख्या बहुत अधिक ना हो, तब यह विधि बहुत व्यवहारिक सिद्ध होगी.
3. बहुत कम मात्रा में उपयोग होने वाले बहुत भारी सामग्रियों जिनका इकाई क्रय दर (unit price) बहुत अधिक होता है ऐसे सामग्रियों के लिए यह विधि उपयुक्त है.
4. सामग्रियों के जारी करने का दर वर्तमान बाजार दर के  समान होगा.
5. जब बाजार मूल्य में निरंतर वृद्धि होती रहती है तब निर्मित सामग्री और का मूल्यांकन वर्तमान बाजार मूल्य के बराबर होगा; और क्लोजिंग स्टॉक का मूल्य ऐतिहासिक होने के कारण बाजार मूल्य से बहुत कम होगा जो कि एकाउंटेंसी की नीति लागत और बाजार मूल्य में जो कम हो (cost or market price whichever is lower) से मेल खाती है.

• इस विधि से हानि/खामियां (limitations) 

1. अगर अल्पकाल में ही किसी सामग्री को कई बार विभिन्न दरों पर खरीदा जाए, तो कई दरों को एक साथ हिसाब में रखना कठिन होगा.
2. एक ही सामग्री के लिए विभिन्न क्रय दर  का उपयोग होने के कारण दो निर्मित सामग्रियों या दो कार्यों में उचित तुलना संभव नहीं होगा.
3. क्लोजिंग स्टॉक का मूल्यांकन ऐतिहासिक लागत (हिस्टोरिकल कॉस्ट) पर होगा जो वास्तविक वर्तमान बाजार मूल्य से बहुत कम होगा.
4. जब सामग्री के बाजार क्रय दरों में क्रमशः कमी होती रहेगी, तब निर्मित सामग्री का मूल्य वास्तविकता से कम होगा और क्लोजिंग स्टॉक का मूल्य वर्तमान बाजार मूल्य से अधिक होगा.

• LIFO और  FIFO विधियों की तुलना (difference between LIFO and FIFO methods) 

1. LIFO विधि में सबसे अंत में खरीदी गई सामग्री सबसे पहले उत्पादन के लिए जारी की जाती है.

FIFO विधि में सबसे पहले खरीदी गई सामग्रियां उत्पादन के लिए सबसे पहले जारी की जाती है.

2. जब बाजार में सामग्री के क्रय- दर यानी मूल्य में लगातार कमी हो, तो ऐसी अवस्था में LIFO विधि के अनुसार कुल उत्पादन लागत  कम होगा; और FIFO विधि के अनुसार कुल उत्पादन लागत अधिक होगा.

3. सामग्री के बाजार क्रय दर यानी मूल्य में लगातार वृद्धि होने की अवस्था में LIFO विधि के अनुसार उत्पादन लागत अधिक होगा; और FIFO विधि के अनुसार उत्पादन लागत कम होगा.

4. सामग्री के बाजार क्रय दर यानी मूल्य में लगातार कमी की अवस्था में LIFO विधि के अनुसार क्लोजिंग स्टॉक का मूल्य अधिक होगा; और FIFO विधि के अनुसार क्लोजिंग स्टॉक का मूल्य कम होगा.

5. सामग्री के बाजार क्रय दर यानी मूल्य में लगातार वृद्धि की अवस्था में LIFO विधि के अनुसार क्लोजिंग स्टॉक का मूल्य कम  होगा; और FIFO विधि के अनुसार क्लोजिंग स्टॉक का मूल्य अधिक होगा.

6. LIFO विधि के उपयोग से वर्तमान लागत (current cost) और वर्तमान आय (current revenue) का मेल (matching) कराया जाता है. और FIFO विधि के उपयोग से इन्वेंटरी यानी वस्तु सूची का मूल्यांकन वर्तमान लागत के अनुरूप होता है.

7. LIFO विधि के उपयोग से क्लोजिंग स्टॉक का मूल्यांकन ऐतिहासिक मूल्यों पर होता है. क्लोजिंग स्टॉक एक चालू संपत्ति (current assets) है. इसलिए कार्यकारी पूंजी (वर्किंग कैपिटल) का मूल्यांकन गलत हो जाता है.
 इसके विपरीत FIFO विधि में क्लोजिंग स्टॉक का मूल्यांकन वर्तमान मूल्यों पर होता है. जिससे कार्यकारी पूंजी का मूल्यांकन भी सही होता है.

III. सरल औसत विधि (सिंपल ऐवरेज मेथड) 

किसी निश्चित तारीख को इन्वेंटरी में विभिन्न क्रय दरों पर खरीदी गई सामग्री हो सकती है. उसी दिन अगर कोई सामग्री उत्पादन इत्यादि के लिए जारी की जाती है, तो इन विभिन्न क्रय- दरो का सरल औसत निकाल लिया जाता है. और  इसी सरल औरत को  जारी करने  के  दर (issue rate) के रुप में  व्यवहार किया जाता है.

FIFO विधि में वर्णित उदाहरण के अनुसार सामग्री को तीन विभिन्न दरों पर खरीदा गया है यह दर है ₹1, ₹2, ₹3. क्योंकि इनकी संख्या 3 है, इसलिए इनका सरल औसत ₹2 [=(₹1+₹2+₹3)÷3] होगा. और इस प्रकार अगर 250 किलो सामग्री उत्पादन इत्यादि के लिए जारी की गई हो तो उसका मूल्य ₹500 (=250X₹2) होगा और 350 किलो क्लोजिंग स्टॉक का मूल्य ₹1,000 (=50X₹2+300X₹3) होगा.

• इस विधि के लाभ (advantages)
1. इस विधि को समझना और उसका व्यवहार करना आसान है.
2. अगर क्रय दरों में सामान्य परिवर्तन हो, तो इससे सामग्री के जारी करने के दर में असर नहीं पड़ता है.
3. जब विभिन्न तारीखों पर खरीदे गए सामग्रियों आपस में मिल जाती हैं और उनका पहचान करना आसान नहीं होता, तो सरल औसत  विधि  उपयुक्त होता है.
4. यह विधि तब उपयुक्त होती है जब क्रय- दरों में परिवर्तन हो लेकिन क्रय की मात्रा (ऑर्डर क्वांटिटी) लगभग समान रहे.

• इस विधि से हानि (limitations)
1. कुल खर्च किया गया लागत सामान्य रूप से जारी किए गए सामग्री के मूल्य से नहीं मिलता है. इस प्रकार सामग्री पर लाभ या नुकसान हो सकता है.
2. अगर सामग्री का क्रय बार-बार हो, तो सामान्य औसत दर की गणना करना कठिन हो जाएगा.
3.जब नई सामग्री खरीदी जाती है और पुरानी सामग्री खत्म हो जाती है तब भी सामान्य औसत दर  की गणना फिर से करनी पड़ती है.
4. जब क्रय- मात्रा बहुत अधिक पैमाने पर बदलते हैं तब इस विधि के कारण सामग्री पर बहुत अधिक लाभ या नुकसान हो सकता है.
5. क्लोजिंग स्टॉक के मूल्य की जांच करना मुश्किल हो जाता है क्योंकि इस विधि के अनुसार विभिन्न समय पर खरीदे गए सामग्रियों की पहचान बनाए रखना आवश्यक नहीं है.
6. कभी-कभी मूल्य वृद्धि के समय क्लोजिंग स्टॉक का मूल्य नकारात्मक (negative) भी हो सकता है.

IV. भार-गत औसत विधि (वेटेड ऐवरेज मेथड) 

इस विधि के अनुसार उत्पादन इत्यादि के लिए जारी किए गए सामग्री के दर की गणना निम्न प्रकार से की जाती है. जारी करने की तिथि पर इन्वेंटरी में उपस्थित सामग्री के कुल मूल्य को सामग्री की कुल इकाइयों से भाग दिया जाता है इस प्रकार भार-गत या वेटेड औसत प्राप्त होता है.
सरल औसत दर विधि में केवल क्रय- दरों का औसत निकाला जाता है; और इसमें विभिन्न समय पर खरीदे गए सामग्री की मात्राओं की अवहेलना की जाती है. लेकिन भार-गत औसत विधि में भिन्न-भिन्न तारीखों पर खरीदे गए मात्राओं को भी उचित महत्व दिया जाता है.

FIFO विधि में उल्लेखित उदाहरण के अनुसार जारी करने की दर की गणना निम्नलिखित प्रकार से होगी...

 वेटेड ऐवरेज रेट= (100 X ₹1 + 200 X ₹2 + 300 X ₹3) ÷ (100 + 200 + 300)
= ₹1400/600 =₹2.33333  या ₹2.33 (लगभग)

इस प्रकार, जारी किए गए 250 किलो सामग्री का मूल्य लगभग  ₹583  (=250 X ₹2.33) और क्लोजिंग स्टॉक के 350 किलो  का मूल्य लगभग ₹817 (=₹1400 - ₹583) होगा.

 सामान्य सूत्र (जनरल फार्मूला)
 अगर यह मान लिया जाए कि तीन विभिन्न तारीखों पर किसी सामग्री की x, y और z मात्रा a, b और c रुपए प्रति इकाई की दर से खरीदी गई हो, तो जारी करने की दर होगी...

 वेटेड ऐवरेज दर =
(ax+by+cz)÷(x+y+z)  ₹ प्रति इकाई

• इस विधि से लाभ (advantages)
1. इस विधि के उपयोग से मूल्य (price) परिवर्तन (fluctuation) के असर को न्यूनतम किया जा सकता है.
2. अगर सामग्री की नई खेप (lot) नहीं आती है तो पुराना दर ही व्यवहार किया जाता है.
3. सामग्री पर लाभ या हानि सिर्फ उसी अवस्था में होती है जब गणितीय हिसाब में कुछ त्रुटि हो.
4. अगर सामग्री की खरीद बार-बार न की जाए, तो इस विधि के उपयोग से समय और ऊर्जा की बचत होगी. क्योंकि यह एक सरल विधि है.
5. जब सामग्री के  क्रय के खेप की मात्रा और उनका बाजार दर दोनों परिवर्तनशील होते हैं, तब यह विधि उपयुक्त होती है.

• इस विधि से हानि (limitations) 

1. जिस संस्था में सामग्री के क्रय का लेनदेन बहुत अधिक होता है वहां पर वेटेड एवरेज दर की गणना बार-बार करनी पड़ती है.
2. जिस मूल्य पर सामग्रियों को उत्पादन इत्यादि के लिए जारी किया जाता है वह मूल्य ना ही ऐतिहासिक (cost) होते हैं ना ही बाजार मूल्य (market value) होते हैं.
3. इस विधि के प्रयोग से सामग्री पर लाभ या हानि हो सकता है. इससे बचने के लिए वेटेड एवरेज दर को लगभग 4 या 5 दशमलव  बिंदुओं (जैसे ₹2.33 के बदले ₹2.3333 इत्यादि) तक व्यवहार करना चाहिए.

Saturday, 28 October 2017

WBHS XII Cost: उपरिव्यय यानी ओवरहेड (Overhead)

ओवरहेड की परिभाषा

किसी व्यवसाय या संगठन को चलाने के लिए किए गए खर्च या लागत को ओवरहैड या उपरिव्यय कहा जाता है. प्रधान लागत (प्रत्यक्ष सामग्री + प्रत्यक्ष मजदूरी) यानी प्राइम कॉस्ट (डायरेक्ट मटेरियल + डायरेक्ट लेबर) और अन्य प्रत्यक्ष खर्च को छोड़कर बाकी सभी खर्चों को सामूहिक रुप से ओवरहेड कह सकते हैं. यह अप्रत्यक्ष लागत होते हैं. इन्हें प्रत्यक्ष रुप से किसी वस्तु या सेवा के उत्पादन या किसी उत्पादन प्रक्रिया से जोड़ा नहीं जा सकता है. इन्हें किसी उपयुक्त आधार पर विभिन्न वस्तु या सेवाओं या उत्पादन प्रक्रियाओं में बांटा जाता है. फैक्ट्री या ऑफिस इमारत का किराया, ऑफिस के कर्मचारियों का वेतन, विज्ञापन इत्यादि के लिए किए गए खर्च ओवरहेड के कुछ उदाहरण हैं.

ओवरहेड को अप्रत्यक्ष लागत, गैर-उत्पादक लागत, सप्लीमेंट्री खर्च या लागत, भार, लोड या लोडिंग इत्यादि भी कहा जाता है.

• ओवरहेड का महत्व (इंपॉर्टेंस ऑफ ओवरहेड)


 किसी भी व्यवसायिक संस्था या संगठन में प्रत्यक्ष खर्चों के अलावा कई प्रकार के अप्रत्यक्ष खर्च अवश्य होते हैं, जैसे अगर किसी औद्योगिक फार्म को ही लिया जाए, तो उत्पादन में व्यवहार किए गए सामग्री और श्रमिकों को दिए गए वेतन के अलावा भी कई प्रकार के अन्य खर्च होते हैं. जिनके बिना उत्पादन प्रक्रिया बाधित हो सकती है. इस प्रकार यह स्पष्ट है कि किसी भी व्यवसायिक संस्था के मूल कार्य को करने के लिए कई प्रकार के अन्य खर्च भी करने पड़ते हैं. और उनसे बचा नहीं जा सकता है. उपरोक्त उदाहरण में फैक्ट्री का किराया, प्रबंधकों और कार्यालय के कर्मचारियों का वेतन, वस्तुओं या सेवाओं के विज्ञापन और प्रचार में खर्च, विक्रय कर्ताओं (sales men) का वेतन और दुकानों के परिचालन का खर्च, इत्यादि अप्रत्यक्ष लागत है. जिनकी अनुपस्थिति में संस्था का संचालन नहीं हो पाएगा; और किसी भी संस्था का अंतिम उद्देश्य उसके द्वारा बनाए गए वस्तु या सेवा के विक्रय के फलस्वरूप लाभ कमाना होता है. इसलिए अगर केवल उत्पादन करना संभव भी हो जाए, तो वस्तु या सेवाओं को बेचकर आय प्राप्त करने के लिए कई प्रकार के अन्य खर्च करने आवश्यक हैं. ऐसे ही खर्च को ओवरहेड कहा जाता है.

आधुनिक युग में उत्पादन प्रक्रिया और संस्थागत परिचालन और प्रबंधन में बहुत अधिक परिवर्तन आए हैं. किसी भी अर्थव्यवस्था के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में सेवा का हिस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है. और सेवाओं के उत्पादन के लिए विभिन्न प्रकार के अप्रत्यक्ष खर्च करने पड़ते हैं. इस प्रकार यह स्पष्ट है की ओवरहेड की अवहेलना नहीं की जा सकती.

 इसके अलावा ओवरहेड अप्रत्यक्ष लागत होने के कारण किसी विशेष वस्तु, सेवा या उत्पादन प्रक्रिया से प्रत्यक्ष रुप से जुड़े नहीं होते हैं. इसलिए इन्हें किसी उपयुक्त आधार (suitable basis) पर संबंधित वस्तुओं, सेवाओं या उत्पादन प्रक्रियाओं में आवंटित (allocate) किया जाता है. अगर ऐसा ठीक से नहीं किया जा सका, तो किसी भी वस्तु, सेवा, उत्पादन प्रक्रिया इत्यादि के कुल लागत (total cost) की गणना में त्रुटि हो जाएगी. पर इस प्रकार इनका मूल्य निर्धारण भी गलत होगा. ऐसी अवस्था में किसी एक वस्तु या सेवा या उत्पादन प्रक्रिया पर हानी और किसी अन्य पर लाभ होने लगेगा. जबकी वास्तविक अवस्था में दोनों ही वस्तुओं इत्यादि पर लाभ हो सकता है. इस प्रकार प्रबंधक द्वारा लिए गए निर्णय पर भी असर पड़ सकता है. इस प्रकार यह स्पष्ट है कि ओवरहैड बहुत अधिक महत्वपूर्ण है.

¶ ओवरहेड का वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन ऑफ ओवरहेड) 


ओवरहेड कई प्रकार के हो सकते हैं. इसलिए इन्हें तीन श्रेणियों में बांट कर वर्गीकृत किया जा रहा है. ओवरहेड को तत्व (element), कार्य (function) और आचार (behaviour) के आधार पर निम्नलिखित शब्दों में वर्गीकृत किया जा सकता है...

I. तत्व के आधार पर वर्गीकरण तथ्यों के आधार पर ओवरहेड निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं.


• अप्रत्यक्ष सामग्री (इनडायरेक्ट मटेरियल) 

जैसे कंस्यूमएबल स्टोर्स ,रुई, मोबिल, प्रथम उपचार सामग्री (first aid material),आग बुझाने की सामग्री, खाता बही  (stationery), कर्मचारियों के लिए खाने का सामान, सफाई का सामान, वस्तुओं को पैक करने का सामान , वस्तुओं को वितरित करने का वाहन डिलीवरी वेन इत्यादि.

• अप्रत्यक्ष मजदूरी (इनडायरेक्ट लेबर)

जैसे दरवान, सुपरवाइजर, फैक्ट्री-प्रबंधक , यंत्रों के रखरखाव और मरम्मत में कार्यरत कर्मचारी, कार्यालय में कार्यरत कर्मचारी, गोदाम के कर्मचारी, सफाई करने वाले कर्मचारियों ,  विक्रय कर्ता और वितरण कर्ता का वेतन इत्यादि. 

• अप्रत्यक्ष खर्च (इनडायरेक्ट एक्सपेंसेस) 

जैसे यंत्रों के मरम्मत और रखरखाव का खर्च, इमारतों का किराया, बीमा, मूल्यह्रास (depreciation), अन्य प्रशासनिक खर्च जैसे बिजली इत्यादि, विज्ञापन, दुकान के परिचालन, बाजार अनुसंधान (market research), प्रदर्शनी (exhibition), इत्यादि. 

II. कार्य के आधार पर ओवरहेड निम्नलिखित  प्रकार के होते हैं...


• उत्पादन ओवरहेड (production overhead)


जैसे फैक्ट्री के अन्य कर्मचारियों का वेतन, फैक्ट्री का रेंट, बीमा, बिजली और अन्य इंधन (fuel)का खर्च, यंत्रों का रखरखाव, मरम्मत और मूल्यह्रास (depreciation) इत्यादि.

• प्रशासनिक ओवरहेड (एडमिनिस्ट्रेटिव ओवरहेड) 

जैसे प्रशासनिक और कार्यालय के कर्मचारियों का वेतन , कार्यालय का किराया, बिजली का खर्च, छपाई का खर्च, लेखा- सामग्री (stationery) का खर्च, बीमा , पत्राचार (postage) टेलीफोन का खर्च, कानूनी खर्च, लेखा-परीक्षा शुल्क (audit fee), कार्यालय के यंत्रों का रखरखाव, मरम्मत और मूल्यह्रास, इत्यादि.


• विक्रय ओवरहेड (sales overhead)


जैसे विक्रय कर्ताओ का वेतन और कमीशन, विज्ञापन और प्रचार का खर्च, विक्रय संवर्धन (sales promotion), नमूना (sample), उपहार (gift), इत्यादि के वितरण का खर्च, शोरूम का खर्च इत्यादि.


• वितरण ओवरहेड (distribution overhead)


जैसे गोदाम का किराया, बीमा, टैक्स, माल ढुलाई का भाड़ा और बीमा , निर्मित वस्तुओं को पैक करने वाले कर्मचारियों का वेतन, वितरण-वाहन (delivery Van) के चालक का वेतन और वितरण विभाग के सभी संपत्तियों का मूल्यह्रास इत्यादि. 

III. आचार के आधार पर ओवरहेड का वर्गीकरण 

व्यवहार के आधार पर ओवरहेड मुख्यतया तीन प्रकार के होते हैं...

•स्थिर (फिक्स्ड) ओवरहैड

स्थिर ओवरहैड ऐसे अप्रत्यक्ष लागत है जो उत्पादन के आयतन में परिवर्तन के अनुसार परिवर्तित नहीं होते, अर्थात नहीं बदलते हैं. इसलिए अगर उत्पादन  शून्य हो जाए या दुगना हो जाए, तो भी कोई स्थिर ओवरहैड  जैसे फैक्ट्री का रेंट इत्यादि नहीं बदलेगा. जैसे फैक्ट्री का किराया, बीमा, टैक्स, लाइसेंस फी, इत्यादि प्रबंधकों का वेतन,  पट्टा का किराया (lease rent) इत्यादि.


• परिवर्तनशील (वेरिएबल) ओवरहेड

यह ऐसे अप्रत्यक्ष लागत होते हैं जो उत्पादन में परिवर्तन के साथ बदलते रहते हैं. जैसे यंत्र को चलाने के लिए बिजली का खर्च, पैकिंग सामग्री, अप्रत्यक्ष श्रमिकों का वेतन, विक्रय कर्ताओं का कमीशन, इत्यादि. प्रति इकाई परिवर्तनशील ओवरहेड सामान्यतः स्थिर होते हैं.

• अर्ध-परिवर्तनशील (सेमी वेरिएबल) या अर्ध-स्थिर (सेमी फिक्स्ड) ओवरहेड 

ऐसे अप्रत्यक्ष लागत उत्पादन के एक स्तर तक स्थिर रहते हैं, और उत्पादन के इस स्तर को पार करने के बाद इन में भी गैर-अनुपातिक (disproportionate) रूप से परिवर्तन होने लगता है. इसलिए ऐसे अप्रत्यक्ष लागतो को दो भागों में बांट लिया जाता है_ एक भाग लगभग हमेशा स्थिर रहता है. और दूसरा भाग उत्पादन की एक स्तर के परे परिवर्तित होने लगता है. उदाहरण के लिए कई अप्रत्यक्ष कर्मचारियों का वेतन पूर्व निर्धारित और निश्चित होता है. लेकिन अगर उन्हें अतिरिक्त कार्य करने के लिए कहा जाता है, तो उन्हें अतिरिक्त वेतन देना पड़ता है. इसे ओवरटाइम कहते हैं. इसी प्रकार दीर्घकाल में अगर उत्पादन को अचानक बढ़ाना पड़ता है, तो इसके लिए कुछ अतिरिक्त सुपरवाइजर्स को भी बुलाना पड़ता है. जिससे खर्च बढ़ने लगता है. किसी भी यंत्र का उपयोग अत्यधिक होने पर उसके मरम्मत और रखरखाव और मूल्यह्रास का खर्च भी बढ़ने लगता है. इस प्रकार यह स्पष्ट है की एक सीमा तक ऐसे लागत स्थित रहते हैं; और उसके बाद इन में परिवर्तन होने लगता है.

¶ प्रधान लागत (प्राइम कॉस्ट) और अप्रत्यक्ष लागत (ओवरहेड) में अंतर 

प्राइम कॉस्ट और ओवर हेड में अंतर को निम्नलिखित बिंदुओं  द्वारा समझा जा सकता है...

1. प्राइम कॉस्ट प्रत्यक्ष लागत होता है.
और ओवरहैड अप्रत्यक्ष लागत होते हैं.

2. प्रत्यक्ष सामग्री खर्च, प्रत्यक्ष मजदूरी और अन्य प्रत्यक्ष खर्चों के योगफल को किसी वस्तु, सेवा या उत्पादन प्रक्रिया का प्राइम कॉस्ट कहा जाता है.
इसके विपरीत किसी व्यवसायिक संस्था या संगठन के परिचालन के लिए किए गए खर्च जो किसी वस्तु या सेवा या  किसी उत्पादन प्रक्रिया से प्रत्यक्ष रुप से जुड़े नहीं होते हैं उन्हें ओवरहेड कहते हैं.

3. प्राइम कॉस्ट के घटक जैसे प्रत्यक्ष सामग्री, प्रत्यक्ष श्रम, इत्यादि सामान्यतः पूरी तरह से परिवर्तनशील होते हैं. अर्थात उत्पादन के आयतन में नाम मात्र (nominal) परिवर्तन से भी इनमें परिवर्तन होता है.
ओवरहेड स्थिर, परिवर्तनशील या अर्ध-परिवर्तनशील हो सकते हैं. लेकिन दीर्घकाल में सभी लागत परिवर्तनशील होते हैं.

4. बिंदु 3 के अनुसार प्रती इकाई प्राइम कॉस्ट स्थिर रहेगा लेकिन कुल प्राइम कॉस्ट उत्पादन के आयतन में परिवर्तन के साथ बढ़ेगा और घटेगा.
 ओवरहेड अपनी प्रकृति के अनुसार घट-बढ़ और स्थित रह सकता है. इसी प्रकार प्रति इकाई ओवरहेड भी स्थिर या परिवर्तनशील हो सकता है.
5. प्रधान लागत ऐसे लागत है जिनकी अनुपस्थिति में किसी वस्तु या सेवा के उत्पादन की कल्पना नहीं की जाती जा सकती है. शायद इसीलिए इनका नाम प्रधान लागत या प्राइम कॉस्ट है.
 ओवरहेड की आवश्यकता किसी वस्तु या सेवा के उत्पादन के कारण ही जन्म लेती है. अगर प्रधान लागत शून्य  हो अर्थात उत्पादन अगर नहीं हो, तो अन्य ओवरहेड लागत भी नहीं होने चाहिए. लेकिन ओवरहेड लागत ऐसे लागत है जो उत्पादन प्रक्रिया को संभव बनाते हैं. इसलिए दोनों ही लागत एक दूसरे  के पूरक होते हैं.

6. प्रधान लागत का संबंध किसी वस्तु या सेवा के उत्पादन या किसी उत्पादन प्रक्रिया से बड़ी आसानी से की जा सकती है. इसलिए इनके बंटवारे की समस्या नहीं होती है.
 लेकिन ओवरहैड का संबंध प्रत्यक्ष रुप से किसी वस्तु या सेवा के उत्पादन या उत्पादन प्रक्रिया से नहीं की जा सकती. इसलिए इन्हें किसी उपयुक्त आधार पर संबंधित वस्तुओं, सेवाओं या उत्पादन प्रक्रियाओं में बांटा जाता है.

English Grammar: Voice Change (वॉइस चेंज)


सतत जन शिक्षा यानी सस्टेनेबल मास एजुकेशन

संछिप्त विवरण

यह एक काल्पनिक, लेकिन संभव, शिक्षा की व्यवस्था है. जो तीसरी दुनिया के देशों या पिछड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों के लिए बहुत ही कारगर और लाभदायक हो सकता है. इस तंत्र में समाज के भिन्न -भिन्न अंगों से भागीदारी की अपेक्षा की जाती है. समाज के विभिन्न अंग जैसे सरकार, व्यवसाय जगत और परिवार यानी गृहक्षेत्र हो सकते हैं. इन्हें ही शिक्षा का फल प्राप्त होता है. इन्हें सजग, शिक्षित, ज्ञानी, सभ्य और कुशल नागरिक, कर्मचारी, और सामाजिक सदस्य मिलते हैं. इसलिए सतत जन शिक्षा की स्थापना और विकास में इनका योगदान आवश्यक है. इस तंत्र में सिर्फ इनसे कुछ पाने की इच्छा के अलावा इन्हें भी उसी अनुपात में लाभ प्रदान करने की व्यवस्था की कल्पना की गई है. यह एक आत्म-स्थाई और आत्म-निर्भर व्यवस्था होगी. जो सभी भागीदारों के लिए लाभदायक होगी.

इस व्यवस्था (जिसे सतत जन शिक्षा कहा जा सकता है) की  स्थापना संचालन और निगरानी में भागीदारों की क्या भूमिका होगी; और उन्हें दीर्घकाल में संभवत क्या फल प्राप्त हो सकते हैं. इसकी चर्चा मैं निम्नलिखित शब्दों में लिपिबद्ध कर रहा हूं.

• सरकार

 किसी देश में केंद्रीय सरकार या प्रादेशिक सरकार या स्थानीय सरकार हो सकते हैं. सरकार प्रजातांत्रिक, राजतांत्रिक या समाजतांत्रिक, इत्यादि हो सकते. सामान्यतः सामाजिक और मिश्रित अर्थव्यवस्था वाली सरकारों के स्वामित्व और नियंत्रण में एक भव्य शिक्षा व्यवस्था और संस्थागत बुनियादी ढांचा होता है. सामान्य रूप से इसमें विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, इत्यादि आते हैं. इन संस्थाओं का व्यवहार केवल सुबह, दोपहर या शाम को विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए किया जाता है. इस प्रकार  प्रत्येक शैक्षणिक इकाई कम से कम 2 बार और व्यवहार किया जा सकता है. निजी क्षेत्र जिनके पास धन, प्रबंधकीय कौशल, और कारगर कार्य-संस्कृति है, उन्हें यह इकाइयां व्यवहार करने के लिए दिया जा सकता है. जिससे निजी क्षेत्र के कुशल प्रबंधन वाला एक शैक्षणिक संस्थान की स्थापना होती है. और विद्यार्थियों को बेहतर शिक्षा प्राप्त होती है. इस प्रकार निजी क्षेत्र के उद्यमियों को बुनियादी ढांचा बनाने के लिए बहुत अधिक लागत (संक कॉस्ट) और इन्हें बनाने में लगने वाले समय की बचत होती है.

उदाहरण के लिए अगर किसी विद्यालय या महाविद्यालय का मासिक लगान ₹20,000 हो तो 1 वर्ष का लगान 240,000 रुपए होंगे. अगर निजी विद्यालयों में प्रत्येक विद्यार्थी का प्रतिवर्ष शुल्क ₹1,000 मान लिया जाए, तो  निजी प्रबंधकों को प्रतिवर्ष 240 विद्यार्थियों को निशुल्क शिक्षा प्रदान करने के लिए कहा जा सकता है. और इस प्रकार उन्हें नगद भुगतान भी नहीं करना पड़ेगा. यह 240 विद्यार्थी गरीबी रेखा से नीचे से शुरु होकर आर्थिक रुप से सक्षम श्रेणी के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध होना चाहिए. इस प्रकार, निजी प्रबंधक भी अल्पकाल में ही ब्रेक-इवन बिंदु (आय  और लागत के समान होने की अवस्था) पर पहुंच जाते हैं; और अल्पकाल में ही लाभ कमाने लगते हैं. इनके लाभ को भी कुछ वर्षों के लिए कर मुक्त किया जा सकता है, क्योंकि सरकार बिना किसी अतिरिक्त खर्च के कई विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा प्रदान कर पा रही है. जिससे सरकार को भी बहुत अधिक बचत हो रही है.

इसी प्रकार अगर किसी विशेष क्षेत्र में सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं की संख्या बहुत कम हो या उनकी स्थापना संभव ना हो, और अगर उसी स्थान पर कोई निजी संस्था पहले से उपस्थित है, तो सरकार इस इकाई को किराए में लेकर एक सार्वजनिक शिक्षण संस्था के रुप में चला सकता है. निजी संस्था को भी कार्यहीन समय के बदले कुछ धन की प्राप्ति होती है क्योंकि उनके संपत्ति का परम सदुपयोग (ऑप्टिमम यूटिलाइजेशन) होने लगता है. सरकार द्वारा भुगतान किए गए लगान को निजी स्वामियों के हाथों में कर मुक्त माना जाना चाहिए. क्योंकि सरकार इस अवस्था में एक शिक्षण संस्था की स्थापना करने में लगने वाले बहुत अधिक लागत और इन्हें बनाने में लगने वाले समय से बच पाते हैं. इस प्रकार इसके अलावा ऐसे विशेष क्षेत्रों में सरकारी उपक्रम के फलस्वरूप कुछ रोजगार के अवसर भी उत्पन्न होते हैं. क्योंकि इस व्यवस्था में भी कुछ शिक्षकों और गैर-शिक्षकों की आवश्यकता होती है.

तीसरी दुनिया और पिछड़ी अर्थव्यवस्था वाले कई देशों में निजी क्षेत्र को सार्वजनिक क्षेत्र से अधिक दक्ष और लाभदायक माना जाता है. कई मामलों में यह सत्य भी है. इस प्रकार इस काल्पनिक शैक्षणिक व्यवस्था में विद्यार्थियों को बेहतर गुणवत्ता वाला शिक्षा प्राप्त हो पाएगा.

कई देशों में पूंजी और प्राकृतिक संपदा के कमी के फलस्वरूप रोजगार के अवसर बहुत कम है. इन देशों में शिक्षित, अनुभवी और कुशल बेरोजगार बहुत अधिक है. सरकार और निजी क्षेत्र के बीच इस प्रकार की साझेदारी की संभावना में कई शिक्षित और कुशल बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा. उनके आय बढ़ने से उनकी क्रय शक्ति बढ़ेगी. जिससे वस्तुओं और सेवाओं का मांग बढ़ेगा. उनके जीवन स्तर में भी वृद्धि होगी. मांग में वृद्धि होने  से व्यवसायिक गतिविधियों का विकास होगा. और इनके फलस्वरूप पूरी अर्थव्यवस्था का विकास होगा. यह एक चक्रीय विकास होगा.

ऐसी संस्थाओं के परिचालन समिति में एक गैर कार्यकारी सदस्य की भी आवश्यकता है जो सरकार और समाज के हितों का रक्षक होगा ऐसी संस्थाओं के क्रिया कलाप में किसी भी प्रकार की बाधा या लोक रुकावट नहीं करेगा उसका दायित्व केवल सरकार को इस में होने वाली गतिविधियों की जानकारी देते जानकारी देना होगा ऐसी कार्य खेल के लिए ऐसी कार्य के लिए गैर राजनीतिक और अवसर प्राप्त शिक्षक उपयुक्त हो सकते हैं जैसे कार्यरत अवसर प्राप्त प्रधान अध्यापक या प्रिंसिपल इत्यादि.

पिछड़ी अर्थव्यवस्थाओं में छात्रवृत्ति, बेरोजगारी भत्ता, इत्यादि आम बात है. इन्हें भी उत्पादक बनाने की आवश्यकता है. सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता का प्रमुख शर्त बेरोजगार या गरीब होना है. जो कि शायद सही नहीं है. कई देशों में कई शिक्षित और कुशल बेरोजगार है. अगर उपरोक्त व्यवस्था की स्थापना होती है, तो कई शिक्षण कर्मियों की आवश्यकता होगी. इन बेरोजगारों को इन संस्था में अपनी सेवा प्रदान करने के बदले छात्रवृत्ति या बेरोजगारी भत्ता के बदले वेतन मिलेगा. जिससे उनका आत्म सम्मान और आगे बढ़ने की इच्छा में वृद्धि होगी. कई प्रकार के पढ़ाई, जैसे बेचलर ऑफ एजुकेशन (B. Ed.) कोर्स इत्यादि में विद्यार्थियों को किसी अन्य विद्यालय में जाकर कई दिनों तक पढ़ाने का अभ्यास करना पड़ता है. और इन विद्यालयों के असली शिक्षक इतने दिनों तक कार्यहीन रहते हैं. क्या यह व्यवस्था सही है? कुछ लोग सिर्फ कार्यहीन समय बिताने के लिए वेतन पाते हैं. इस व्यवस्था को बदल कर इस प्रकार के विद्यार्थियों को किसी क्षेत्र विशेष में जाकर किसी सरकारी या निजी विद्यालय या अन्य किसी भी भवन में वहां के अशिक्षित बच्चों और बड़ों को मूलभूत शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए. इससे समाज में निरक्षरता घटेगी; इन विद्यार्थियों के अनुभव में वृद्धि होगी; और कोई भी कर्मचारी को अपना समय बैठकर नहीं बिताना होगा जिससे सामाजिक धन का सदुपयोग होगा.


• व्यवसाय जगत

व्यवसाय जगत का अर्थ निजी क्षेत्र के व्यवसायिक उपक्रमों से है.

कई देशों में व्यवसाय जगत से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने लाभ का एक हिस्सा अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के पालन के लिए खर्च करेंगे. इस धन का उपयोग वे विद्यालय पार्क, खेल के मैदान, पुस्तकालय, इत्यादि की स्थापना और परिचालन में करते हैं. इनका उपयोग वे ग्राहक शिक्षा और ग्राहक सुरक्षा के लिए भी करते हैं. व्यवसाय जगत को इसी धन का अनुदान शिक्षा जगत को करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है.

इसके अलावा व्यवसायिक उपक्रम मशहूर शैक्षणिक संस्थाओं के साथ साझेदारी कर सकते हैं. इस व्यवस्था में विद्यार्थियों को सप्ताह के दो या तीन दिन कॉलेज या विश्वविद्यालय में कक्षा में उपस्थित रहना पड़ेगा और पढ़ाई करनी पड़ेगी; और सप्ताह के बाकी दिनों में उस व्यवसायिक प्रतिष्ठान में जाकर कार्य करना पड़ेगा. इसे सामान्य बोलचाल की भाषा में कारपोरेट ट्रेनिंग  प्रोग्राम भी कहा जाता है. इस प्रकार विद्यार्थी अनुभव कौशल और शिक्षा एक ही समय में प्राप्त कर पाते हैं. इस कार्यक्रम के पूरा होने पर विद्यार्थी या तो उसी उपक्रम या अपनी इच्छा अनुसार किसी भी उपक्रम को चुन सकते हैं.  किसी भी हाल में व्यवसाय जगत को शिक्षित अनुभवी और कुशल लेबर सप्लाई में वृद्धि मिलती है. इस प्रकार उन्हें आसानी से शिक्षित, अनुभवी और कुशल कर्मचारी मिलते हैं. लेबर सप्लाई में वृद्धि होने के फलस्वरूप श्रम लागत में कमी आती है; और इस प्रकार उनके लाभ में वृद्धि होती है. इस प्रकार बेरोजगारी की समस्या भी घटती है.

निजी व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के प्रतिभावान और उत्साही कर्मचारी विद्यालय, कॉलेज और विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ व्यवसाय जगत में अपने कार्यकाल के अनुभव और कई प्रकार की जानकारियों को साझा कर सकते हैं. वे जब भी खाली समय निकालकर ऐसे प्रशिक्षण दे सकते हैं. इस प्रकार इन विद्यार्थियों को भी सही समय पर व्यवसाय जगत के बारे में कई प्रकार की बहुमूल्य जानकारियां मिलेंगी. जिनका उपयोग वे अपने विद्यार्थी जीवन में भी कर पाएंगे. विद्यार्थी जीवन पूरा होने पर विद्यार्थी इन्हीं प्रतिष्ठानों को चुन सकते हैं. इस प्रकाश प्रशिक्षण देने वाले ऐसे प्रतिभावान और उत्साही कर्मचारियों के प्रतिष्ठानों के सुनाम में वृद्धि होती है; और उनका ब्रैंड वैल्यू भी बढ़ता है. अगर सरकार को यह उचित लगे, तो ऐसे कर्मचारियों को उनकी सेवाओं के बदले एक उचित पैमाने का कर छूट दिया जा सकता है. जो एक व्यक्तिगत प्रोत्साहन के रूप में भी कार्य करेगा.

इसी प्रकार अवसर प्राप्त शिक्षकों को उनकी सुविधानुसार कभी भी कही भी कुछ कक्षा में पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. इस प्रकार शिक्षा क्षेत्र में ज्ञानी और अनुभवी शिक्षाकर्मियों की कमी की समस्या से लड़ा जा सकता है. उनकी सेवाओं के बदले एक न्यायोचित कर छूट प्रदान करने पर वे थोड़ा बचत कर पाएंगे; और उनके ज्ञान और अनुभव का लाभ इस समाज को मिलता रहेगा.

• परिवार

यह समाज की वह इकाई है जो ना ही सरकार और ना ही व्यवसाय जगत के प्रत्यक्ष सदस्य है. यह समाज की एक पारस्परिक निर्भरशील इकाई है, जिसमें वस्तुओं और सेवाओं के उपभोक्ता और देश के नागरिक शामिल है.

एक चीनी कहावत है कि अगर आप किसी को एक दिन खिलाना चाहते हैं तो उसे एक मछली दान में दें और अगर आप उसे हमेशा खिलाना चाहते हैं तो उसे मछली पकड़ना सिखाएं.

समाज के कई व्यक्ति, गोष्ठी, संस्था, दल इत्यादि कई प्रकार  के पर्व पर अत्यधिक धन खर्च करते हैं. उत्सव मनाना और पर्वो पर हर्षोल्लास बनाना गलत नहीं कहा जा सकता. लेकिन धन के सदुपयोग और दुरुपयोग में अंतर होता है. विश्व के शायद सभी धर्मों का मूल संदेश यही है, कि सबसे बड़ा धर्म मानव सेवा है. परोपकार ही सबसे बड़ा धर्म है. इसलिए मैं सिर्फ आशा करता हूं कि ऐसे व्यक्ति, संस्था या गोष्ठी अपने खर्चों का अगर 90% या उससे भी अधिक दान शैक्षणिक व्यवस्था की स्थापना, संचालन और रख-रखाव के लिए करें, तो यह मानव जाति के प्रति बहुत बड़ी सेवा होगी. इस प्रकार उनके हृदय और आत्मा को जो खुशी मिलेगी वह किसी भी अन्य हर्षोल्लास या उत्सव में शायद नहीं मिल सकती.

 ऐसा कह कर मैं किसी भी प्रकार से किसी के विश्वास की भावना को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता हूं.

 बाकी 10% धनराशि का उपयोग हर्षोल्लास और उत्सव मनाने में खर्च कर सकते हैं. और गर्व के साथ पूरे समाज को बता सकते हैं कि उन्होंने कितना धन शिक्षा के विकास के लिए दान किया है. उनके द्वारा दान किए गए इस धन का उपयोग विद्यालय, कॉलेज, विश्वविद्यालय, पुस्तकालय, खेल के मैदान, हॉस्टल इत्यादि के निर्माण, संचालन और रख-रखाव में किए जा सकते हैं. इस प्रकार समाज में निरक्षरता घटेगी और समाज के सदस्य एक शिक्षित और बेहतर नागरिक बन पाएंगे. जिससे समाज का सांस्कृतिक और बौद्धिक विकास होगा. और प्रत्येक समाज के सदस्य को एक सुखद अनुभूति होगी. निरक्षरता के दूर होने से समाज की कई कुरीतियां, बुराइयां, गैर का कानूनी गतिविधियों, बेरोजगारी की समस्या, इत्यादि में अवश्य कमी आएगी. जो समाज के लिए एक अनमोल रिटर्न गिफ्ट होगा अपने अनुदान के बदले.



अगर ऊपर सुझाए गए सभी कदमों को निष्ठा के साथ उठाया जाए, तो यह व्यवस्था दीर्घ काल में भी स्थाई रहेगी. क्योंकि इस व्यवस्था में सिर्फ लेने पर ही नहीं, देने पर भी ध्यान दिया गया है. यह ऐसी व्यवस्था है जिस में जो जितना योगदान करता है उसे उतना ही पुरस्कार मिलता है. इस प्रकार यह व्यवस्था गरीब देशों में साधारण जनता को शिक्षित करने के लिए अवश्य कारगर साबित हो सकती है.


(अगर किसी भी प्रकार किसी भी व्यक्ति को मेरी किसी भी बात से ठेस पहुंची हो, तो मैं हाथ जोड़कर उनसे निवेदन करता हूं, कि वे मुझे नासमझ मानकर क्षमा कर दें. क्योंकि क्षमा करना दैवीय गुण है.)

शिक्षा: विश्व परिवर्तन का एक साधन

संक्षिप्त विवरण

इस ब्लॉग में मैं शिक्षा को एक ऐसी साधन के रुप में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूं जो विश्व में कई बुराइयों को दूर कर सकता है; मानव कल्याण और उन्नति को और प्रगतिशील बना सकता है; यह कुरीतियों का रामबाण बन सकता है; और इस प्रकार शिक्षा वह साधन वह औजार या वह हथियार कहा जा सकता है जिससे हम पूरी दुनिया को बदल सकते हैं.

भूमिका

"मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है." स्वामी जी इस महान देश के लोगों द्वारा किस प्रकार  मानव सेवा अर्थात  दीन- दुखियों की सेवा करवाना चाहते थे ? क्या उनके प्रति सिर्फ दानशील होकर या उनके प्रति सहानुभूति शील होकर? शायद मानव सेवा का उनका विचार केवल सैद्धांतिक या दार्शनिक नहीं था. उनके विचार व्यवहारिक थे. एक चीनी कहावत है, "अगर आप एक आदमी को एक दिन खिलाना चाहते हैं, तो उसे एक मछली दान दे` . लेकिन अगर आप उसे जीवन भर खाना खिलाना चाहते  हैं, तो उसे मछली पकड़ना सिखाएं." इसलिए समाज के शैक्षणिक और वित्तीय रूप से पिछड़े स्तरों को वित्तीय- और प्रौद्योगिकी- साक्षर बनाना आवश्यक है. उन्हें बैंकों और गैर बैंकिंग कंपनियों में अंतर को समझना आवश्यक है. इस प्रकार वह अपने कड़ी मेहनत की कमाई को डूबने से बचा  सकेंगे. उन्हें बीमा के महत्व को समझना आवश्यक है. उन्हें प्रौद्योगिकी-साक्षर होना पड़ेगा. जिससे वे भ्रष्टाचार- नाशक  प्रद्योगिकी का लाभ उठा सके. जैसे अर्धईश्वर इंटरनेट का उपयोग  ATM और ऑनलाइन दूरसंचार, लेन देन, इत्यादि के रूप में.

अब प्रश्न यह उठता है कि यह कौन करेगा? पैसे कहां से आएंगे? यह महान देश इसके नागरिको का है. लेकिन इस की संपत्ति केवल अमीर और भ्रष्ट लोगों की है! आज भ्रष्ट लोग लाखों-करोड़ों रुपए लूट सकते हैं. लेकिन समाज के पास शैक्षणिक बुनियादी रचनाओं की स्थापना के लिए धन नहीं है! हम आज भी कई गांव में बिजली, दूरसंचार , शैक्षणिक संस्थाओं की सुविधा, इत्यादि नहीं पहुंचा सके. जो कि निश्चित रूप से दुखद है.

शिक्षा की परिभाषा

शिक्षा मानव मन में ज्ञान के बीज को परंपरा के खाद, अनुभव के प्रकाश, परहित की भावना के प्राण-वायु, और नैतिकता के जल से सींच कर सभ्य मानवता की खेती को शिक्षा कहा जा सकता है.

इसकी उत्पत्ति और विकास व्यक्तित्व के निर्माण और मनुष्य में विद्यमान दिव्य गुणों को उजागर करने के लिए हुआ था.

औजार या हथियार

औजार या हथियार का आविष्कार मनुष्य ने अपनी सुरक्षा और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए किया था.

आज भी मौलिक कारण वही है. लेकिन सभ्य मानवता का पूर्ण विकास नहीं होने के कारण इसका उपयोग कमजोरों पर अत्याचार और उनके शोषण के लिए किया जाने लगा और किया जा रहा है. आज शिक्षा का प्रधान उद्देश्य जीविकोपार्जन प्रतीत होने लगा है. लेकिन  धन अर्जन शिक्षा का केवल एक उप-उत्पाद यानी बाईप्रोडक्ट है. मनुष्य की प्रकृति हमेशा से प्रतिस्पर्धाशील रही है. इसलिए सभ्य समाज ने अन्य औजारों का त्याग करके शिक्षा को प्रतिस्पर्धा का आधार बनाया. जिससे वही समाज और व्यक्ति अब सबसे विकसित या उन्नत है जिसकी बौद्धिक क्षमता इस भौतिकवादी युग में सबसे कुशल और कारगर है.

शिक्षा से अर्जित ज्ञान और हथियारों से प्राप्त शक्ति का उपयोग और दुरूपयोग मनुष्यों द्वारा किया जाने लगा. और वह अभी भी प्रगति पर है. क्या यह शिक्षा का दोष है? नहीं, मनुष्य ने सभी अच्छी चीजों का दुरुपयोग करके उन्हें करप्ट किया. तो, हमें सही मार्ग कौन बनाएगा? हमारे मनीषी महामहिम तुलसीदास जी ने कहा है "परहित सरिस धर्म नहीं भाई| परपीड़ा सम नहीं अधमाई|" 

विश्व के सब धर्मों का मूल सिद्धांत मानव सेवा ही है. कुछ लोग या लोगों का समूह स्वार्थ साधन के लिए इनकी अजीब व्याख्या करते हैं. और ज्ञान और हथियारों का उपयोग आतंक फैलाने और निर्दोषों, कमजोरों और निहत्थों की हत्या में कर रहे हैं. क्या उसी ज्ञान, औजार और धन का उपयोग सृजन के लिए नहीं किया जा सकता? क्या आतंक में लगे धन और ज्ञान का उपयोग निरक्षर को शिक्षा, बेरोजगार को नौकरी, भूखे को खाना, बेघर को घर दिलाने, और अन्य परोपकारी कार्यों के लिए नहीं किया जा सकता है? हां, किया जा सकता है. हम यह कर सकते हैं. हमें दधीचि ऋषि, मदर टेरेसा, दानवीर कर्ण, बाबा आमटे, इत्यादि की तरह विद्या और बल का सदुपयोग करना होगा.  अपने ज्ञान की शक्ति का उपयोग परोपकार और विश्व के कल्याण के लिए करना होगा. ना कि इनका दुरूपयोग कमजोर पर शासन और उनका शोषण करने के लिए; और आतंक फैलाने के लिए.

प्रौद्योगिकी विज्ञान-विद्या का परिणाम है. यह अर्ध-ईश्वर प्रतीत होता है. यह सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है. जैसे इंटरनेट. इसका भी सदुपयोग मानव सेवा और भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए हो रहा है; इसका और अधिक उपयोग होना चाहिए. एक बहुत ही सरल उदाहरण: इंटरनेट जानने वाले व्यक्ति घर बैठे ट्रेन टिकट कटा सकते हैं, बिजली के बिल जमा कर सकते हैं, मोबाइल रिचार्ज कर सकते हैं, अपने सगे संबंधी और मित्रों को आवश्यकतानुसार ऑनलाइन धन हस्तांतरित कर सकते हैं, इंटरनेट की सहायता से करों का भुगतान इत्यादि भी किया जा सकता है. इसकी सहायता से आप कई प्रकार के आवेदन और कई प्रकार की सरकारी और गैर सरकारी सेवाओं का भी उपभोग बिना बिचौलियों की सहायता से भी कर सकते हैं जिससे भ्रष्टाचार में कमी आती है. इसी प्रकार कई देशों में प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण यानी डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के जरिए सरकारी सहायता लोगों को प्रत्यक्ष रूप से प्रदान की जा रही है जिससे भ्रष्टाचार में व्यापक पैमाने से कमी करने में सहायता मिली है. इंटरनेट आज ज्ञान का महासागर है. जिसमें कोई भी जानकारी बहुत ही आसानी से प्राप्त हो सकती है. लेकिन शिक्षा और ज्ञान के अभाव में कई लोग इन्हीं कार्यों के लिए अनावश्यक समय और ऊर्जा खर्च और बर्बाद करते हैं.

 उपरोक्त चर्चा के आधार पर मैं समाज को_ जिसका मैं एक बहुत ही छोटा सा सदस्य हूं_सुझाव देने का साहस कर रहा हूं...

• शिक्षा का उद्देश्य धनोपार्जन के बदले सभ्य मानवता अर्जित करना हो. इसे विद्यार्थियों को बचपन से बताना और सिखाना होगा. ऐसा तभी संभव होगा जब शिक्षा को धन अर्जन के लिए स्पर्धा का आधार नहीं बनाया जाएगा.

• किताबी शिक्षा के बदले कर्म शिक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण के द्वारा विद्यार्थियों को स्वावलंबन और जीविकोपार्जन सिखाना होगा.

• इसके लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने होंगे; और आबादी की वृद्धि दर न्यूनतम करनी होगी.

• धर्म के मूल सिद्धांत यानी मानव सेवा को दृढ़ रूपेण स्थापित करना होगा. ताकि तथाकथित धार्मिक असहिष्णुता, धार्मिक उन्माद और घृणा ना पनप सके.

• विज्ञान और प्रोद्योगिकी का उपयोग मानव सेवा, विकास और सृजन के लिए हो और 'ध्वंसात्मक विज्ञान' को ज्ञान और तर्क से हतोत्साहित करना होगा.

• विज्ञान और प्रौद्योगिकी का उपयोग मानव कल्याण, असमानता उन्मूलन और भ्रष्टाचार उन्मूलन, इत्यादि जैसे परोपकारी कार्यों में करना होगा.

• आधुनिक काल में प्रशासन, व्यवसाय जगत और समाज मेलजोल से सहकारी व्यवस्था की स्थापना, संचालन, और नियंत्रण करें. जिससे शिक्षा का प्रचार और प्रसार हो सके; और अज्ञान और आसुरी उन्माद के अंधकार दूर हो सकें.